गत वर्ष की तरह ( http://kyari.blogspot.com/2006/08/blog-post_29.html ) इस वर्ष भी पर्यूषण मनाया जाये। ज्ञानी-जन कह गये हैं कि दूसरों को क्षमा-दान देने में और दूसरों से क्षमा-दान माँगने में हमारी बहुत सारी मानसिक-शारीरिक समस्याओं का हल निहित है।
नमस्ते!
यदि मैंने जाने-अनजाने अपने विचार, शब्द या कार्यों से आपको व्यथित किया है तो पर्यूषण के पावन पर्व पर मैं हृदय से आपसे क्षमा माँगता हूँ। साथ ही मैं सभी जीव-अजीवों को क्षमा करता हूँ और मैं सभी जीव-अजीवों से क्षमा माँगता हूँ। मैं सभी जीव-अजीवों से मित्रता का व्यवहार करूँगा। मैं किसी से दुश्मनी का व्यवहार नहीं करूँगा और मैं सभी से क्षमा-प्रार्थी हूँ।
~!~!~!~!~
मुझे महसूस होता है कि मेरे मन में कई बार कई लोगों के प्रति कोइ बुरी बात (ईर्ष्या, घृणा, अहित भावना, क्रोध, द्वेष, आदि) उत्पन्न होती है। अधिकतर ऐसे विचार क्षणिक होते हैं लेकिन कभी-कभी ये बहुत दिनों तक मन में जगह बना लेते हैं। इस तरह के विचार मेरी क्रियात्मकता और सकारात्मक सोच को गलत तरह से प्रभावित करते हैं। दूसरी ओर मेरे जाने-अनजाने में किये गये अनुचित कार्य दूसरों को आहत करते है। भविष्य में मेरा प्रयास रहेगा कि में किसी को आहत न करूँ और अगर कर भी दिया तो क्षमा-याचना के लिये तत्पर रहूँ। अत: मेरा विश्वास है कि पर्यूषण पर्व मेरी मानसिक व शारीरिक शक्ति को एकजुट करने और उसे समाज सेवा में लगाने में सहायक होगा।
क्षमा-प्रार्थी,
हिमांशु
Wednesday, September 19, 2007
Thursday, September 06, 2007
सीसे का खेल
-- सीसे का खेल --
अब इसमें बेचारे मैटेल (देखें http://www.npr.org/templates/story/story.php?storyId=14176496 ) की क्या गलती कि जो खिलोने वो दुनिया भर के भोले-भाले बच्चों के लिये बनाते हैं उसमें सीसा ( metal lead ) था वो भी ’थोड़ा सा’ जी हाँ चिन्ना सा। अब यह तीसरी ही तो गलती थी पिछले कुछ दिनों में।
विकसित देशों में भले ही सीसा युक्त रंगों को लेकर कई वर्षों से खीँचतान होती रही है लेकिन भारत जैसे ’विकासशील’ और अन्य गरीब देशों को तो शायद ही यह समझ आये कि ये बवाल क्या है। सब जानते हैं कि भारत में भी आजकल ’मेड इन चाइना’ खिलौने शहर से लेकर गाँव तक हर दुकान पर मिल जायेंगे। हम जब भी भारत जाते हैं तो हमें ’मेड इन चाइना’ ही उपहार मिलते हैं।
मैंने यह पाया है कि अमरीका में इस बात की चर्चा में चिन्ता सिर्फ़ यहाँ के बच्चों की है, बहुत कम बातें इस बात पर हो रही हैं कि किस तरह अमानवीय स्थितियों मे चीन के कारखानों के गरीब मजदूर दुनिया-भर की चकाचौंध भरी मॉल में बिकने वाले इन उत्पादों को इतना सस्ता बनाते हैं। इन बातों को सोचने में शायद हमारे दिमाग की बुद्धि-मत्ता मात खा जाती है।
अब यह सब उपभोक्ता-चलित अर्थव्यवस्था का ही तो कमाल है। जब देखो बच्चों को उपहार में खिलौने दिये जाते हैं, इस आशा से कि उनका मनोरंजन होगा, मानसिक विकास होगा और सबसे बढ़िया वो हमारा (बड़े लोगों का, माता पिता का) दिमाग कम चाटेंगे और हमें कुछ ’साँस’ लेने की फ़ुर्सत देंगे। अब देखिये अमरीका में खिलौनों का कारोबार एक बिलीयन डॉलर (करीब चार-हज़ार करोड़ रुपये) का है।
एक और मुख्य बात आजकल की अर्थव्यवस्था की है वो है कि सरकारों और लोगों (निवेशकों) को कम्पनियों के वार्षिक वित्तीय परिणाम से ज़्यादा मतलब होता है, न कि उनके कार्य करने के तरीके और मानवीय पक्ष से। यहाँ देखें http://www.minyanville.com/articles/index.php?a=13982 कि किस तरह यह सिद्ध किया जा रहा है कि हमें इससे कोइ फ़र्क नहीं पड़ता कि कोइ कम्पनी अपने मजदूरों का कैसा खयाल रखती है, पर्यावरण के प्रति कितनी जागरुक है, आदि। हमें सिर्फ़ मतलब होना चाहिये कि उसके वार्षिक वित्तीय परिणाम कैसे हैं।
विकसित देशों मे तो एफ़ डी ए ( FDA ) जैसी सरकारी संस्थायें हैं जो कम्पनीयों के उत्पादों पर नज़र रखती हैं और यह सुनिश्चित करती है कि उनसे मनुष्यों और पर्यावरण को नुक्सान तो नहीं हो रहा है। दुर्भाग्य से अमरीका जैसे देशों में भी ऐसी संस्थाओं के पास संसाधनों की कमी होती जा रही है।
कल ही एक और खबर आई कि पॉप-कॉर्न बनाने वाली मशहूर कम्पनी कॉन-एग्रा ने अपने पॉप-कॉर्न में से एक रासायन डाइएसिटाइल को हटाने की घोषणा कि जिसे फ़ेफ़डों की एक घातक बीमारी का कारण बताया जा रहा है। पॉप-कॉर्न में जो बटर (घी) की खुश्बू होती है वो इसी रसायन के कारण होती है। देखें http://biz.yahoo.com/ap/070905/popcorn_lung_conagra.html?.v=8 । इस कम्पनी का "ACT II" पॉप-कॉर्न अमरीका में लाखों बच्चों-बड़ों द्वारा खाया जाता है। जी नहीं कम्पनी ने यह निर्णय किसी दैवीय हस्तक्षेप के बाद नहीं किया, बल्कि डेनवर नेशनल ज्यूविश मेडिकल सेन्टर के एक फ़ेफ़ड़ों के विशेषज्ञ द्वारा अमरीकी केन्द्रीय सरकार को लिखे एक पत्र के बाद किया जिसमें उन्होंने लिखा कि उनके पास ऐसा पहला उदाहरण है जिसमें एक उपभोक्ता ने वर्षों तक उस माइक्रोवेव पॉप-कॉन को खाया और उसे फ़ेफ़ड़ों का घातक रोग हुआ।
अब सबसे आश्चर्यजनक बात ये है कि ये खबरें प्रकाश में इसलिये आई क्योंकि ये कम्पनियाँ "बडी़" हैं या फिर मिडिया द्वारा इन्हैं ना छापना ना-मुमकिन था। लेकिन ऐसी बहुत सी खबरें हमें पता भी न चल पायें अगर सरकारी जाल-घरों पर वे उपलब्ध ना हों। यह http://www.fda.gov/opacom/7alerts.html एक ऐसा ही जाल-घर जहाँ "एफ़ डी ए" (US FDA) यानी "अमरीकी खाद्य एवं दवा प्रबन्धन" उत्पादों के बारे में सूचना देता है और आपको कई चौकाने वाली सूचनायें मिलेंगी। देखें http://www.cpsc.gov/ जहाँ अमरीकी उपभोक्ता उत्पाद संघ उत्पाद सुरक्षा के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी देता है और मैटेल की कहानी भी यहाँ है http://www.cpsc.gov/cpscpub/prerel/prhtml07/07301.html । यहाँ http://www.usa.gov/Citizen/Topics/Consumer_Safety.shtml हर तरह की उपभोक्ता सुरक्षा के बारे में जानकारी है चाहे वो कार हो या बैंक या फिर पानी या केबल टीवी।
लाभ के पीछे दौड़ती कम्पनियों और उत्पादों के पीछे दौड़ते लोगों की इस पकड़म-पकड़ाई को थोड़ा धीमा किया जाना चाहिये। क्या हम (उपभोक्ता) कुछ कर सकते हैं या फिर हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहें और दुआ करें कि सरकार कुछ करे या फिर हिन्दी फ़िल्म की तरह मन्दिर जायें और कहें "खुश तो बहुत होगे तुम" ( पार्श्व संगीत हम्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म ......... )
-- हिमांशु शर्मा
अब इसमें बेचारे मैटेल (देखें http://www.npr.org/templates/story/story.php?storyId=14176496 ) की क्या गलती कि जो खिलोने वो दुनिया भर के भोले-भाले बच्चों के लिये बनाते हैं उसमें सीसा ( metal lead ) था वो भी ’थोड़ा सा’ जी हाँ चिन्ना सा। अब यह तीसरी ही तो गलती थी पिछले कुछ दिनों में।
विकसित देशों में भले ही सीसा युक्त रंगों को लेकर कई वर्षों से खीँचतान होती रही है लेकिन भारत जैसे ’विकासशील’ और अन्य गरीब देशों को तो शायद ही यह समझ आये कि ये बवाल क्या है। सब जानते हैं कि भारत में भी आजकल ’मेड इन चाइना’ खिलौने शहर से लेकर गाँव तक हर दुकान पर मिल जायेंगे। हम जब भी भारत जाते हैं तो हमें ’मेड इन चाइना’ ही उपहार मिलते हैं।
मैंने यह पाया है कि अमरीका में इस बात की चर्चा में चिन्ता सिर्फ़ यहाँ के बच्चों की है, बहुत कम बातें इस बात पर हो रही हैं कि किस तरह अमानवीय स्थितियों मे चीन के कारखानों के गरीब मजदूर दुनिया-भर की चकाचौंध भरी मॉल में बिकने वाले इन उत्पादों को इतना सस्ता बनाते हैं। इन बातों को सोचने में शायद हमारे दिमाग की बुद्धि-मत्ता मात खा जाती है।
अब यह सब उपभोक्ता-चलित अर्थव्यवस्था का ही तो कमाल है। जब देखो बच्चों को उपहार में खिलौने दिये जाते हैं, इस आशा से कि उनका मनोरंजन होगा, मानसिक विकास होगा और सबसे बढ़िया वो हमारा (बड़े लोगों का, माता पिता का) दिमाग कम चाटेंगे और हमें कुछ ’साँस’ लेने की फ़ुर्सत देंगे। अब देखिये अमरीका में खिलौनों का कारोबार एक बिलीयन डॉलर (करीब चार-हज़ार करोड़ रुपये) का है।
एक और मुख्य बात आजकल की अर्थव्यवस्था की है वो है कि सरकारों और लोगों (निवेशकों) को कम्पनियों के वार्षिक वित्तीय परिणाम से ज़्यादा मतलब होता है, न कि उनके कार्य करने के तरीके और मानवीय पक्ष से। यहाँ देखें http://www.minyanville.com/articles/index.php?a=13982 कि किस तरह यह सिद्ध किया जा रहा है कि हमें इससे कोइ फ़र्क नहीं पड़ता कि कोइ कम्पनी अपने मजदूरों का कैसा खयाल रखती है, पर्यावरण के प्रति कितनी जागरुक है, आदि। हमें सिर्फ़ मतलब होना चाहिये कि उसके वार्षिक वित्तीय परिणाम कैसे हैं।
विकसित देशों मे तो एफ़ डी ए ( FDA ) जैसी सरकारी संस्थायें हैं जो कम्पनीयों के उत्पादों पर नज़र रखती हैं और यह सुनिश्चित करती है कि उनसे मनुष्यों और पर्यावरण को नुक्सान तो नहीं हो रहा है। दुर्भाग्य से अमरीका जैसे देशों में भी ऐसी संस्थाओं के पास संसाधनों की कमी होती जा रही है।
कल ही एक और खबर आई कि पॉप-कॉर्न बनाने वाली मशहूर कम्पनी कॉन-एग्रा ने अपने पॉप-कॉर्न में से एक रासायन डाइएसिटाइल को हटाने की घोषणा कि जिसे फ़ेफ़डों की एक घातक बीमारी का कारण बताया जा रहा है। पॉप-कॉर्न में जो बटर (घी) की खुश्बू होती है वो इसी रसायन के कारण होती है। देखें http://biz.yahoo.com/ap/070905/popcorn_lung_conagra.html?.v=8 । इस कम्पनी का "ACT II" पॉप-कॉर्न अमरीका में लाखों बच्चों-बड़ों द्वारा खाया जाता है। जी नहीं कम्पनी ने यह निर्णय किसी दैवीय हस्तक्षेप के बाद नहीं किया, बल्कि डेनवर नेशनल ज्यूविश मेडिकल सेन्टर के एक फ़ेफ़ड़ों के विशेषज्ञ द्वारा अमरीकी केन्द्रीय सरकार को लिखे एक पत्र के बाद किया जिसमें उन्होंने लिखा कि उनके पास ऐसा पहला उदाहरण है जिसमें एक उपभोक्ता ने वर्षों तक उस माइक्रोवेव पॉप-कॉन को खाया और उसे फ़ेफ़ड़ों का घातक रोग हुआ।
अब सबसे आश्चर्यजनक बात ये है कि ये खबरें प्रकाश में इसलिये आई क्योंकि ये कम्पनियाँ "बडी़" हैं या फिर मिडिया द्वारा इन्हैं ना छापना ना-मुमकिन था। लेकिन ऐसी बहुत सी खबरें हमें पता भी न चल पायें अगर सरकारी जाल-घरों पर वे उपलब्ध ना हों। यह http://www.fda.gov/opacom/7alerts.html एक ऐसा ही जाल-घर जहाँ "एफ़ डी ए" (US FDA) यानी "अमरीकी खाद्य एवं दवा प्रबन्धन" उत्पादों के बारे में सूचना देता है और आपको कई चौकाने वाली सूचनायें मिलेंगी। देखें http://www.cpsc.gov/ जहाँ अमरीकी उपभोक्ता उत्पाद संघ उत्पाद सुरक्षा के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी देता है और मैटेल की कहानी भी यहाँ है http://www.cpsc.gov/cpscpub/prerel/prhtml07/07301.html । यहाँ http://www.usa.gov/Citizen/Topics/Consumer_Safety.shtml हर तरह की उपभोक्ता सुरक्षा के बारे में जानकारी है चाहे वो कार हो या बैंक या फिर पानी या केबल टीवी।
लाभ के पीछे दौड़ती कम्पनियों और उत्पादों के पीछे दौड़ते लोगों की इस पकड़म-पकड़ाई को थोड़ा धीमा किया जाना चाहिये। क्या हम (उपभोक्ता) कुछ कर सकते हैं या फिर हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहें और दुआ करें कि सरकार कुछ करे या फिर हिन्दी फ़िल्म की तरह मन्दिर जायें और कहें "खुश तो बहुत होगे तुम" ( पार्श्व संगीत हम्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म ......... )
-- हिमांशु शर्मा
Subscribe to:
Posts (Atom)