-- कवि और रवि ( दी पोएट एण्ड लाइट )--
नोट: यह रचना एक सच्ची घटना पर आधारित हो सकती है। अगर है तो हमें बतायें और ईनाम पायें। धन्यवाद!
एक बार एक कवि (कविता लिखने वाला) और एक रवि (दसवीं में पढ़ने वाला आपकी तरह मनचला छात्र) एक साथ ( हाँ भई पास-पास और एक ही समय ) ट्रेन में बैठे जा रहे थे। मैं तो कहूँगा या तो भगवान या फिर ट्रेन, सिर्फ़ दो ही चीज़ें ऐसी हैं दुनिया में जो दो अनजान लोगों को न सिर्फ़ मिलाती है बल्कि काऽऽऽऽऽऽऽऽफ़ी देर तक मिलाऽऽऽऽऽऽऽऽती रहती हैं। बॉलिवुड की कई लीचड़ फ़िल्में इस बात का घटिया प्रमाण हैं।
खैर ! बात को और लम्म्म्म्बा ना खीँचते हुए, कवि जी किसी बड़े कवि सम्मेलन (अपने सम्मेलन सबको बडे़ लगते हैं जी) में अपनी कविता पहली बार पढ़ने जा रहे थे। आपमें से कई लोग-लोगिनियाँ उनकी मन:स्थिति या दिल:स्थिति समझ गये होंगे, या फिर बाल की खाल निकाल के बताऊँ?
रवि जी अपनी परीक्षा देने जा रहे थे और उनका आत्मविश्वास चेहरे से टपका जाता था। दसवीं की परीक्षा दसवीं बार जो दे रहे थे। रवि जी वैसे जीवन की परीक्षाओं में पास होते थे, लेकिन इन स्कूली परीक्षाओं में उनकी गोटी नहीं चलती थी। अब भैया, भाग्य से लड़ा तो नहीं जा सकता। काश! लड़ा जा सकता। छोड़ो भी, लड़ाई की बातें फिर कभी।
कवि और रवि के आपसी संक्षिप्त परिचय के बाद, कवि जी ज़ोर ज़ोर से अपनी कवितायें घोंट रहे थे, यानी तैयारी कर रहे थे। और रवि जी अपने जीवन के प्रायोगिक अनुभव से उनका मन ही मन जवाब दे रहे थे। सुनिये, मतलब देखिये, मतबल पढ़िये :
कवि: तु ही मेरी कविता है
रवि: कहाँ ? .... चल ठीक है, होगी
कवि : तेरे बिना चारों और अन्धेरा है
रवि : अबे आखँ हैं या बटन, इनको खोल
कवि: जहाँ देखूँ, अन्धेरा ही अन्धेरा है
रवि: लाइट जला
अचानक रवि जी के दिमाग में बल्ब जला और उन्हैं सूझा कि पढ़ाई तो ये ’कवितायें’ करने नहीं देंगी, क्यूँ ना इन्हैं लिख डालूँ। और रवि जी कवि जी के उवाच और अपने मन की भड़ास एक काग़ज़ पर उकेरने लगे।
कवि: तेरे दिल की गहराइयों में डूब रहा हूँ में
रवि: डूबके मर क्यों नहीं जाता
कवि: जब भी आँखें खोलता हूँ, तुम्हैं ही पाता हूँ
रवि: "स्टार-दस्त" (मतबल "स्टार-डस्ट", सार एक ही है) आँख पर रख कर मत सोया कर
कवि: मैं तो हूँ तेरे खयालों की गन्ध का छोटा सा प्यादा
रवि: अल्लाह की कसम मैंने नहीं पादा
कवि: तुम तो मेरी xxxx (सेन्सर्ड) हो
रवि: तू भी कम xxxx (सेन्सर्ड) नहीं
कवि: तुम होती तो ऐसा होता
रवि: कैसा ?
कवि: तुम होती तो वैसा होता
रवि: अबे साफ़-साफ़ बोल। बढ़िया है, मैं नहीं हुइ।
कवि: अब दिन-दिन नहीं रहे तुम्हारे बिना
रवि: बोले तो रात
कवि: और रात-रात न रही
रवि: सुबह हो गयी, चाय पी
कवि: कश्मकश में हूँ कि, किसे कहूँ, क्या कहूँ, कैसे कहूँ
रवि: डॉक्टर से मिल, टेस्ट करा, दवाइ ला, इलाज करा।
ट्रेन का सफ़र खत्म हुआ। जहाँ कवि जी के मन में सम्मेलन में कविता पढ़ने की सुगबुगाहट थी, वहीं रवि जी के मन में परीक्षा को दुत्कारने की पुरानी चाहत।
खैर हुआ वही जो धोनी (जी हाँ होनी नहीं धोनी) को मज़ूंर था। कवि जी के पीछे-पीछे रवि जी भी अपना काग़ज़ लेकर पहुंच गये कवि सम्मेलन। कवि जी की कविता को ’आह’ मिली तो रवि जी को ’सराह’। कवि जी की भद पिटी और रवि जी पर खूब ताली और साथ ही "हास्य-व्यंग्य की गम्भीर कविता" का ईनाम भी पा गये। फ़िलहाल रवि जी को बॉलिवुड से ऑफ़र का इन्तज़ार है।
--हिमांशु शर्मा
(a)२००७-८ सर्वाधिकार असुरक्षित
१. xxxx- अगर पाठक १८ साल से बड़ा है और सेन्सर्ड शब्दों को जाना चहता है तो अपनी दसवीं की अंक-तालिक (नोटेराइज़्ड) एक पता (स्वयं का ही) लिखे और टिकट लगे लिफ़ाफ़े में भेजें।
२. आपका नाम गुप्त रखा जायेगा। हमारी "मर जायेंगे पर नाम नहीं बतायेंगे" पॉलिसी पर हमें गर्भ है।
३. याद रखें, इन सेन्सर्ड शब्दों के बिना रचना का मज़ा कुछ भी नहीं। अगर आप अनपढ़ हैं तो हम फोन पर या व्यक्तिगत रूप में आकर ये शब्द बताने की व्यवस्थ कर सकते हैं।
Monday, December 24, 2007
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