Wednesday, November 29, 2006

थैंक्स गिविन्ग

-- थैंक्स गिविन्ग --
अमरीका में हर वर्ष, नवम्बर के चौथे गुरुवार को मनाये जाने वाले थैंक्स गिविन्ग (Thanksgiving) उत्सव पर. इस दिन सभी लोग, अमरीका के कौने-कौने से यात्रा करके, सपरिवार इकठ्ठा होकर भगवान को धन्यवाद देते हैं और टर्की (bird turkey) खाते हैं। अधिक जानकारी http://en.wikipedia.org/wiki/Thanksgiving .

इस साल भी देखी खूब, थैंक गिविन्ग की धूम,
लोग हुए इकठ्ठा, खूब चबाई टर्की की दुम।

चबाई टर्की की दुम, टर्की की तो शामत आयी,
कैसा भगवान, कैसा धन्यवाद, किसे दे वो दुहाई।

हवाई-जहाज, कारों में भर-कर चली मानव की आँधी,
ट्रैफ़िक जाम, पैट्रॉल खर्च, ऐयर-लाईन्स की हुई चाँदी।

'सेल' की रेलम-पेल से हो रहे हर दुकान में दंगे,
समर्थ लोग भी टूटेँ ऐसे, जैसे जनम-जनम के भूखे-नंगे।

छूट और फ़्री की खरीद-दारी में सब भूले मानवता फ़र्ज,
तीसरी दुनिया का गरीब मजदूर चुकायेगा हमारी लालच का कर्ज़।

-- हिमांशु शर्मा

Tuesday, October 03, 2006

दशहरा मेला : रावण ने दी पार्टी

-- दशहरा मेला : रावण ने दी पार्टी --

बुराई पर अच्छाई की जीत की देखो कैसी उलटी रीत,
रावण ने क्या दे डाली पार्टी, हम भूले पुरुषोत्तम की नीति।

भूले पुरुषोत्तम की नीति, हर साल हो रहा रावण ऊँचा,
दिल में कर गया घर, राम को निकाल बाहर फैंका।

ऐसा फैंका बाहर कि राम दूर तक नज़र ना आया,
राम-लीला में भी देखो, शानदार रावण सबको भाया।

ऐसा छाया रावण कि ' सिम्पल ' राम को गये सब भूल,
बच्चों का क्या दोष, उन्हैं तो रावण ही लगे ' कूल '।

रावण लगे है ' कूल ', सब चाहें उससे ठाठ-बाठ और शान,
सच्चाई का उत्सव ना होकर, मेला बन गया बनिये की दुकान।

बनिये की दुकान, बेचें महंगे कपड़े, पानी-पूरी और चाट,
व्यर्थ बहायें कागज़, प्लस्टिक और धरती दें कचरे से पाट।

धरती पर कचरा, मन और पेट में कचरा समा गया,
रावण कैसा भी हो, पर उसके पार्टी में मज़ा आ गया।
रावण कैसा भी हो, पर उसके पार्टी में मज़ा आ गया।

-- हिमांशु शर्मा

Wednesday, September 13, 2006

मैं हूँ कॉर्पोरेट ओ दुनिया मैं हूँ कॉर्पोरेट

-- मैं हूँ कॉर्पोरेट ओ दुनिया मैं हूँ कॉर्पोरेट --

इकोनोमी मेरी डेमोक्रेसी मेरी, सरकार को कर दूँ 'सेट',
मैं हूँ कॉर्पोरेट ओ दुनिया मैं हूँ कॉर्पोरेट।

फल पिचका के जूस पिलाऊँ,
रोटी भुला के, डबल-रोटी मुँह लगाऊँ,
रसोई-घर का हो गया मटिया-मेट,
मैं हूँ कॉर्पोरेट ओ दुनिया मैं हूँ कॉर्पोरेट।

विज्ञान मशीनीकरण से उत्पादन बढाऊँ,
लाख गरीब पर एक अमीर बनाऊँ,
धरती माँ की मार दूँ रेड,
मैं हूँ कॉर्पोरेट ओ दुनिया मैं हूँ कॉर्पोरेट।

वैश्वीकरण औद्योगीकरण के कानून बनाऊँ,
सस्ते ऐश्वर्य घर-घर पहुँचाऊँ,
शोषण प्रदूषण से आखँ मूँदकर, तीसरी दुनिया का काटूँ पेट,
मैं हूँ कॉर्पोरेट ओ दुनिया मैं हूँ कॉर्पोरेट।

टीवी, रेडियो, अखबार में छाऊँ,
विज्ञापन दिखा-दिखा ललचाऊँ,
इच्छाओं से भर दूँ मन, दिल और पेट,
मैं हूँ कॉर्पोरेट ओ दुनिया मैं हूँ कॉर्पोरेट।

एक-दो कौडी दान दूँ, पर उससे सामान अपना खरीदवाऊँ,
नई पीढी के पढे-लिखे धासूँ, सबको अपनी शरण बुलाऊँ,
बोनस, वेकेशन कार थमाकर, कर दूँ उनकी मोटी जेब
मैं हूँ कॉर्पोरेट ओ दुनिया मैं हूँ कॉर्पोरेट।

सेलेब्रेटी जब चाहूँ बनाकर, फ़ेशन स्टेटस-सिम्बल चलवाऊँ,
सुन लो तुम हो जोकर, अगर न रहे अप-टू-डेट,
मैं हूँ कॉर्पोरेट ओ दुनिया मैं हूँ कॉर्पोरेट।

दिल दहला युद्ध विभीषिका से, देखो मैं एक आसूँ ना बहाऊँ,
लाखों मरते भूखे-प्यासे, देखो मैं तो बाज़ ना आऊँ,
पहनो 'नाइकी' पीयो 'सोडा' और भरो 'चिप्स' से पेट,
मैं हूँ कॉर्पोरेट ओ दुनिया मैं हूँ कॉर्पोरेट।

--हिमांशु शर्मा

Monday, September 11, 2006

लगे रहो मुन्ना भाई

लगे रहो मुन्ना भाई --

सच में, हास्य और आचरण शिक्षा का इससे बेहतर पाठ मैनें तो मुम्बई फ़िल्म नगरी से पहले नही पढा। मुन्ना भाई की ज़ुबान में "कुछ येडों के मुहँ से गाँधी-गिरी और मस्त मज़ाक का लेक्चर अपुन ये-ईच फ़िलम में पेली बार देखेला है रे बाप.. .. बोले तो बापू"।

अतिश्योक्ति न होगी यदि मैं यह कहूँ कि वर्तमान भौतिकवादी फ़िल्म-युग में, किसी युवा निर्देशक ने पहली बार गान्धीवादी विचारों को न केवल उठाया है वरन उन्हैं जीवन में लागू करता हुआ दिखाया है। और भैया, ये कार्य कोइ युवा निर्देशक ही कर सकता था क्योंकि पुराने जमाने के बुढिया चुके फ़िल्मकारों से ऐसी आशा करना भैंस के आगे बीन बजाने जैसा है। ट्राई करके देख लिजिये।

"मुन्ना भाई" (इससे पहले की फ़िल्म) में "लगे रहो" को इतने बढिया तरीके से हर स्तर पर जोड पाना एक मँझे हुए कहानीकार और निर्देशक की परिपक्वता को दर्शाता है या फिर ये कहें कि "उनके अनुभव में पके या उडे बालों को दर्शाता है"। अगर आपने इससे पहले की फिल्म "मुन्ना भाई" नहीं देखी हो तो देर ना करें। विशेष बात ये है कि आप कोई सी भी फ़िल्म पहले देखें इससे कोइ फ़र्क नहीं पडेगा।
मुख्य बात जो मुझे अच्छी लगी वो यह कि गान्धी जी के अमृत वाक्यों जैसे "डर ही मनुष्य का सबसे बडा दुशमन है", "सत्याग्रह से कोइ भी कार्य सम्भव है", "माफ़ी माँगना चाँटा लगाने से कहीं ज़्यादा कठिन है", आदि और युवाओं द्वारा अपने वृद्ध माता-पिताओं को त्याग देना, ज्योतिष (कुण्डली और अंक) में अन्ध-विश्वास, भ्रष्टाचार, पढे-लिखे लोगों की अन्याय के समय के लाचारी आदि मूल सामाजिक मुद्दों को दिखाना फ़िल्मकारों के लिये सदा चुनौती रहा है। इन बातों को बिना अति-उपदेशात्मक हुये दिखाना कहानीकार और निर्देशक की कार्यकुशलता ही तो है।

वैसे श्टोरी कुछ ऐसी है भाई--

एक था हीरो मुन्ना भाई,
साइड-हीरो सर्किट था छोटा भाई।
मुन्ना भाई का पडा पाला गांधी जी से,
कारण थी एक हीरोइन, जो बोलती थी रेडियो से।
हीरोइन के दादा चलाते थे वृद्धाश्रम,
जहाँ रहते थे वृद्ध मस्त, चाहे कितने हो गम।
वृद्धाश्रम की खुशियाँ काटना चाहता था एक विलेन नाई,
आगे के लिये, जाओ पिक्चर-हॉल और देखो "लगे रहो मुन्ना भाई"।

अब कुछ बातें कलाकारों के बारे में। कलाकरों का चयन बहुत सावधानी से किया गया है। सभी का अभिनय सटीक और ताज़ा है। जहाँ सञ्जय दत्त जी का लहज़ा और हाव-भाव मुन्ना भाई के रूप में जीवन्त हुआ हैं वहीं अर्शद वारसी जी की वाक्पटुता और छोटे-भाई का अन्दाज़ दर्शकों को हँसाते-हँसाते उनका दिल कब लूट लेता है ये पता फ़िल्म के अन्त होने के बाद ही चलता है। बाकी हास्य की कमी सरदार बने बोमन ईरानी जी पूरी कर दी। हास्य कला को पर्दे पर उतारने में बोमन जी ने अपनी महारत को एक बार फिर सिद्ध किया है। विद्या बालन जी की खूबसूरती को दिखाने में केमरे का भरपूर इस्तेमाल हुआ है। सभी कलाकरों ने भावों को अपने चेहरे पर बहुत सुन्दर तरह से दर्शाया है। हालांकि संगीत के लिये फ़िल्म में कोइ स्थान नहीं था लकिन सोनू निगम जी के मधुर स्वरों में "वन्दे मातरम..." गीत बहुत सुन्दर बन पडा है।

कुछ बातें निर्देशक फ़िल्म से हटा देता तो फ़िल्म और 'साफ़' हो जाती। जैसे हीरो, साईड-हीरो का अत्यधिक मदिरा पान, कुछ असंसदीय भाषायुक्त डॉयलाग, कुछ लार्जर-दैन-लाइफ़ सीन जैसे जन्मदिन पार्टी आदि।

अन्त में: आजकल की सडक-छाप पिक्चरों के मुकाबले पिक्चर काफ़ी "क्लीन" है, बोले तो फ़ेमिली के साथ देख सकते हैं, सिर्फ़ एक-दो जगह कान बन्द करने की नौबत आयेगी। मनोरंजन तो है ही साथ में यह सीखने को भी है कि बिना एंग्री-मैन बने भी समस्यायें सुलझायी जा सकती हैं। बात सिर्फ़ प्रयास की है।

Wednesday, August 30, 2006

घूस स्कूल

----- घूस स्कूल -----
"नारा: ghoos school = ghoos is cool"

सुनो सुनो सुनो, मेरे प्यारे देश के नागरिकों सुनो,
पैदल - साइकिल छोडो, डबल-रोटी, जीन्स और कारों के सपने बुनो ।

इस स्कूल के खुलने पर, देश का सौभाग्य चढा नई सीढी,
घूस लेने के लेटेस्ट गुर, यहाँ सीखेगी हमारी नई पीढी।

अब बिना ट्रेनिंग किये, नहीं लेना घूस मेरे लाला,
हरे नोटों की गड्डी, ले सकोगे बिना किये मुहँ काला।

समेट सकोगे माल मेरे आका, जितनी तुम्हारी अंटी है,
बाल-भी ना होगा तेरा बाँका, ये लिखित गारण्टी है।

मरीजों की लाइन हो, या पानी-बिजली-फ़ोन का कनेक्शन,
बिना सुविधा शुल्क पत्ता ना हिले, आप राम हो या लक्षमण।

एडमीशन है चालू, ' जैक ' और डोनेशन दो लाख लेकर आना,
पहले दिन से आधुनिक शिक्षा का, नया पाठ तुम पढके जाना ।

अपने ज़मीर को मारें कैसे, आदि बातें सिखाई जायेंगी,
असहाय गरीब का खून चूसें कैसे, ये बातें आत्मा में बिठाई जायेंगी ।

घूस लेते हुए झिझकना मत, दिल को मत पिघलने देना,
ये सब विधि का विधान है, यह सत्य मन को समझने देना ।

यह सच है कि यह शरीर तो सिर्फ़ मिथ्या है,
तो इससे लेन-देन करने में, हर्ज़ ही क्या है।

इस स्कूल के टीचर हैं पढे-लिखे, और धुरन्धर हर क्षेत्र में,
ऊँचे खिलाडी हैं मोटी चमडी के, रोज़ धूल झोंकते ईश्वर के नेत्र मे।

किताबी ज्ञान होगा नियन्त्रित, पर प्रेक्टिकल पर ज़ोर होगा ज्यादा,
सभी लोग हैं आमन्त्रित, अमीर-गरीब, नर या मादा।

सभी हैं हमारे फ़्रेन्चाईज़, नेता, मन्त्री, अफ़सर, जज या बाबू,
जल्द मिलेगी खुशखबरी, जब सुविधा-शुल्क बिल होगा लोक-सभा में लागू।

आप बनो नेता, ऑफ़ीसर या बनो छोटे या मोटे बिजनेसमेन,
सबके जीवन में भैया, घूस ही तो है सबसे मेन।

दो बातों के बिना आजतक, ना चला किसी का काम,
फ़िर शर्म कैसी स्वीकारने में, चाहे घूस हो या 'काम'।

आप कुर्सी पर बैठे लेते हों या डर के अन्डर दी टेबल,
जल्द बढेगी घूस-कर्म की गरिमा, भागेगा डर और बनेगा ये नोबल।

वह दिन दूर नहीं जब हर बेटा धरती माँ का, होगा घूसखोर,
सीना तान के गर्व से बोल सकेगा, हाँ ! मैं हूँ चोर, मैं हूँ चोर।

-- हिमांशु शर्मा कुल समय ६ घण्टे (६ दिनों में १ घण्टा प्रतिदिन)

Tuesday, August 29, 2006

मिच्छामी दुखडम

नमस्ते!
मुझे जैन पर्व 'पर्यूषण' के पीछे छुपा सन्देश अति-सुन्दर लगा। तो मैंने सोचा कि इस बार मैं इसे मनाऊंगा।
मुझे लगता है कि दूसरों को क्षमा-दान देने से और दूसरों से क्षमा माँगने से हमारी बहुत सारी मानसिक समस्यायें हल हो सकती हैं। साथ ही हमें मानसिक स्वच्छता और शान्ति भी मिलती है।
~!~!~!~!~
यदि मैंने जाने-अनजाने में कभी आपको अपने विचार, शब्द या कार्यों से अपको व्यथित किया है तो पर्यूषण के पावन पर्व पर मैं हृदय से आपसे क्षमा माँगता हूँ।
साथ ही:
मैं सभी जीव-अजीवों को क्षमा करता हूँ
मैं सभी जीव-अजीवों से क्षमा माँगता हूँ
मैं सभी जीव-अजीवों से मित्रता का व्यवहार करूँगा
मैं किसी से दुश्मनी का व्यवहार नहीं करूँगा
और मैं सभी से क्षमा-प्रार्थी हूँ।
~!~!~!~!~
मुझे महसूस होता है कि मेरे मन में कई बार कई लोगों के प्रति कोइ बुरी बात (ईर्ष्या, घृणा, अहित भावना, क्रोध, द्वेष, आदि) उत्पन्न होती है। अधिकतर ऐसे विचार क्षणिक होते हैं लेकिन कभी-कभी ये बहुत दिनों तक मन में जगह बना लेते हैं। इस तरह के विचार मेरी क्रियात्मकता और सकारात्मक सोच को गलत तरह से प्रभावित करते हैं। दूसरी ओर मेरे जाने-अनजाने में किये गये अनुचित कार्य दूसरों को आहत करते है। भविष्य में मेरा प्रयास रहेगा कि में किसी को आहत न करूँ और अगर कर भी दिया तो क्षमा-याचना के लिये तत्पर रहूँ।

अत: मेरा विश्वास है कि पर्यूषण मेरी मानसिक व शारीरिक शक्ति को एकजुट करने और उसे समाज सेवा में लगाने में सहायक होगा।

Thursday, August 24, 2006

देखो, कोशिश करूंगा...

देखो, कोशिश करूंगा...

पता नहीं कब यह अमृत वाक्य जिव्हा में चढ गया। अब लगता होता है कि इस शब्द के अन्दर का भाव कहीं बहुत पीछे छूट गया है।जब भी कोइ मुझसे कुछ सही करने को कहता है, जवाब होता है "देखो, कोशिश करूंगा..." (आगे से संक्षिप्त में दे-को-क, लेकिन यह दे-कोक या दे-पेप्सी नहीं है जनाब) । यदि कोइ अच्छी आदत अपनाने को कहता है, फिर वही "दे-को-क" । जीवन के बाकी कार्यों के लिये शायद ही मैं दे-को-क की शरण में गया हूँ।
दे-को-क का अब जो भाव रह गया है, वह है टालने वाला, मतलब "ठीक है ठीक है, देखेंगे..." । आखिर क्यों होती है टालने की ज़रूरत। मै क्यों नहीं कह पाता कि "मैं फ़लाँ काम नहीँ कर पाउँगा" या फिर "मैं फ़लाँ काम अवश्य करूंगा"।
ऐसा बहुत कम बार होता है जब वास्तव में टालने की आवश्यकता हो। ज्यादातर तो पता होता है कि बताया गया काम करना है, लेकिन किसी कारणवश नहीं कर पाता हूँ। उसके बाद मुझे यथास्थिति स्वीकार करने में झिझक होती है और इस स्थिति से बाहर निकलने में सहायता माँगने में आती है ढेर-सारी शर्म (शर्मा जो हूँ)। ठीक इसी समय, दे-को-क की छत्र-छाँया में जाकर ही आराम मिलता है।
लेकिन साथ ही दे-को-क से मेरी काम टालने की और दूसरों की बात अच्छी तरह से ना सुनने की आदत बलवती होती जाती है। कोशिश तो दूर, उस काम को करने के बारे में खयाल भी नहीं आता। यह बात मैंने अमरीका में आकर देखी/महसूस की कि अधकचरे मन से कहा दे-को-क कितना नुकसानदायक हो सकता है।
मुझे यह सीखना है कि मैं विश्वासपूर्वक यह कह पाऊँ कि या तो "मैं फ़लाँ काम सच्चे मन से करूंगा" या "मैं फ़लाँ काम करने में असमर्थ हूँ"। अगर सच्चे मन से कार्य सम्पादन का प्रयत्न किया और किसी कारणवश असफल रहा, तभी मैं कह पाऊगाँ कि "पूर्ण/आंशिक असफलता का कारण ये है" और मुझे इसे पूर्ण करने में सहायता चहिये या फिर "भैया ये काम नहीं हो सकता "।

Tuesday, August 22, 2006

Wow America: Part 1 Office

WOW America: part 1 Office

This is part 1 of a series on life in the United States of America, from my eyes. This first part focuses on unwanted wastages in the US offices based on my 7 years in the US (living in New Jersey and California and visiting few other states for short trips). Since I work in IT, my experiences reflect offices where IT people work, which are companies of all sizes and fields (finance, pharmaceuticals, insurance, engineering, computer software-hardware products, management-consulting, etc.). When I came to the, the amount of wastage was shocking though the efficacy of the system was, no doubt, enchanting. If this is how a modern society works, then I don’t think we will ever have enough resources to modernize Indian society.
I agree that there are many good things I have learnt after coming to the US and I will write on them later.

Mr. Al Gore, Ex – vice-president of the US, has said in his latest movie ‘An Inconvenient Truth’ that we are running this planet like a bankrupt company. I believe he is very true.
People live with an attitude of “we do all this because we can afford” and every expense is legitimate if the company can pay for it. The worse part: wastage is increasing every year.

1. Water: Almost all companies have water bottle dispensers. Everybody takes a new plastic/paper cup each time they drink. Hence 4-5 cups everyday per person.

2. Coffee: You are not American unless you drink coffee. Everybody (95% of the employees in all the places I have worked/seen) drink 2-3 cups (some even more) of coffee everyday. The in-office coffee cups are made of paper and some outside stores make it of thermocol/plastic. People also use an extra pad (like a ring around the cup) made of card-board so that fingers don’t feel hot, but people in office just take an extra cup (hence double cup to save fingers from hot coffee-tea). Some people tell me that they used to drink coffee in personal glass mugs till few years ago. But coffee leaves strong stains on glasses and cleaning is a real exercise (read time-waste). Coffee normally costs $1-4. Most offices have coffee machines and keep 3-4 variety of coffee (normal, caffeine free, vanilla, etc.).

3. Cold-drinks (soda) fountains: many medium to big companies have cold-drink fountains inside the office so that employees don’t go outside and waste company time to buy one. Normally people drink 3-4 cups of soda in a day. Everybody takes a new plastic cup with each drink.

4. Paper-towel: It is a piece of paper used to dry hands used in restrooms (bathrooms), kitchens, etc. If you go to restaurants, they keep electric dryers but it takes some time (1-2 minutes) to dry hands with these. Hence, offices keep paper towels and I see people normally use two towels, for faster drying of hands/face. Consumption: 20 paper towels per person per day.

5. Tissues: many people keep tissue papers on desks to wipe hands, face etc. Consumption: 10-20 tissues a day per person.

6. News papers: You can find 4-5 types of free newspapers (10-20 pages) near commuting train stations in New York area. Besides this, people buy newspapers which they trash out while leaving the train. Some people even leave them in the train, though train crews regularly announce requesting passengers to trash news-papers outside the train.

7. Lunch: Most of the people eat-out in lunch in US. Very few (mostly Indian, Chinese, Europeans, Russians) bring lunch from home. Outside lunch is packed in paper bags, card-boards, paper wraps, plastic bags, etc. Most lunch costs around $5-10.

a. Cans/bottles: Everybody takes a drink with lunch; hence cold-drink (coke, juice, water, etc.) bottles/cans are used in millions.
b. Chips: everybody takes chips (wafers, tortilla etc.) while eating and these come in plastic pouches.
c. Each lunch you buy out, comes with other disposables like sauce pouch (tomato, mustard, mayo, soy sauce, etc.), paper pouches of salt-pepper, plastic spoon-fork-knife, 2-4 tissues to wipe mouth when eating, etc.

8. Paper: Taking printouts from your computer, no problem. Most offices have multiple printers (1-2 color too) and no limit on how many paper one uses.


9. Utility:
a. Computer: Everybody has a computer. Well it is more common in IT jobs as compared to non-IT jobs. Most of the computers are replaced every 4-5 years. In IT, everybody has two monitors (some have 3 too) and in last 2-3 years I have seen flat-screen monitors everywhere. Most computers run 24 hours a day though they go into power-safe mode when idle.
b. Light: I think every 100 sq-feet has 80-100 watt of light and only tube-lights are used (which is good). Even at night, 20-40% of the lights are on. Some offices leave all lights on, whole night. Parking lot lights are on whole night for security purposes.
c. Telephone: Everybody has a phone. Medium or midsize companies give independent external number.
d. Garbage can: everybody has it with a plastic pouch which janitor replaces every evening.
e. Carpet: most companies have carpeted floor. Cleaner vacuum cleans it every evening.
e. Gifts: Most companies keep coming with publicity gifts (likes some toy, ball, cap, etc.) with the companies logo.


I do:


1. Try to remember to carry a hand-kerchief so that I don’t have to use paper-towels. I had this habit in India but got over it in the US. I need to develop it again.
2. I drink water in my own glass mug and I wash it regularly.
3. I don’t drink soda, coffee, tea etc. I find water as the best liquid to energize and refresh me.
4. Walk over to colleague rather than calling them on phone. It’s a recommended exercise too.
5. Don’t buy New-papers. Read News on the internet in the lunch hour.
6. Always carry lunch from home. And why shouldn’t I when my wife gets up everyday at 6am to cook fresh meal for me and my family.


What do you think?.

Friday, August 18, 2006

दाल पतली....

जी हाँ, दाल पतली करने से ही काम चलेगा। आगे पढेँ।

आज एक बार फिर पढा बीबीसी हिन्दी पर http://www.bbc.co.uk/hindi/news/story/2006/08/060818_america_dal.shtml । बीबीसी हिन्दी को इस बात का दुख है कि दुनिया के सबसे सुविधा सम्पन्न और धनी देश अमरीका में रहने वाले दक्षिण एशियाईयों को दाल कितनी महंगी लग रही है। और अमरीका में दाल महँगा होने का कारण है भारत सरकार द्वारा दालों के निर्यात पर प्रतिबन्ध। और ये प्रतिबन्ध इसलिये क्योंकि गत वर्ष भारत में दाल की फ़सल अच्छी नहीं हुई। क्यों नहीं हुई इससे हमें क्या।

मैं अमरीका में ही रहता हूं और मुझे ये खबर पढकर हँसी आयी क्योंकि अमरीका में बाकी चीज़ों के दाम के मुकाबले दालें इतनी महंगी नहीं है।
बीबीसी के अनुसार "...पहले जहाँ इन दालों के पाँच पाउंड के एक पैकेट का दाम तीन डॉलर था वहीं अब यह बढ़कर 10 डॉलर के क़रीब हो गया है...."

मेरा परिवार, जिसमें मैं, मेरी बेगम और एक ५ साल की मेरी लडकी है, एक महीने में ५ पाउण्ड (२ किलो) से ज़्यादा दाल नहीं खाता। तो भाई कुलमिला कर, महीने में मेरे ७ डालर अधिक खर्च हो रहे हैं। लेकिन यहां पर अगर आप चाय-काफ़ी भी बाहर पियें तो २-३ आलर की आती है, और ६-७ डालर मे आप बर्गर खाके पेट भर सकते हैं। खैर, चलो मान भी लो कि दाल महंगी है। अब आप ये सोचिये ये दाल भारत में रहने वाले निम्न व मध्यम वर्गीय परिवारों को कितनी महंगी लग रही होगी।
कुछ खट्टी-मीठी बातें:
१. मुझे लगता है कि दालों की ज़रूरत भारत के परिवारों को ज़्यादा है। भारत के बाहर के लोगों को कुछ समझदारी से काम लेना चाहिये दालें कम खाकर।
२. वैसे भी डाक्टर कहते कहते थक गये कि सब्ज़ी ज़्यादा खानी चहिये। इससे अच्छा क्य मौका है। दालें छोडो, सब्ज़ी से नात जोडो।
३. और फिर दाल पतली क्यों नहीं करें। वाकई, पतली दाल खाओ, सूप बनाकर, 'इंग्लिश श्टाइल'।
४. अजी दाल मे कौनसे सुर्खाब के पंख लगे हैं। राजमा, दूसरे बीन्स (लीमा, ब्लैक आई, फ़्रेन्च, इत्यादि) भी तो खाये जा सकते हैं जो कि पूरी दुनिया की स्थानीय फ़सलें हैं।
५. दुकानदार हमेशा की तरह दाम बढने से पहले ही दाम बढा देते हैं, लेकिन जब दाम घटाने का समय आता है तो बहुत धीरे धीरे रोते-रोते घटाते हैं। आपने देखा होगा, बजट की घोषणा हुई नहीं कि दाम बढ जाते है। कभी आपने दाम घटते हुए देखा है या सुना है। फिर दुकानदारों से ये पूछो कि जो माल आपने सस्ती दर पर खरीदा था उसे दाम बढाकर क्यों बेचते हो।

कहीं ना कहीं दाल में कुछ काला अवश्य है।
खैर, बेहतर यही है कि दाल का इस्तमाल एहतियात से करो।

Tuesday, August 01, 2006

गीता प्रयोगशाला

गीता प्रयोगशाला

गीता को मनोविज्ञान की सर्वोत्तम पुस्तक बताया गया है। पूरी दुनिया में, गीता के बारे में अनगिनत ज्ञानीजन व्याख्यान देते रहते हैं और बहुत लोग उसने लाभान्वित व प्रभावित भी होते हैं।
एक बार एक व्याख्यान में मैनें सुना था कि गीता को हम दो प्रकार से पढ सकते हैं। एक तो हम गीता पर शोध करें अर्थात संस्कृत, गीता की उत्पति, लेखन समय, विकास आदि का अध्ययन। दूसरा हम गीता में बताई गई बातों को पढें, समझें और उनको अपने जीवन में ढालने का प्रयास करें।
प्रत्यक्ष है कि जन साधारण गीता को दूसरे वाले प्रकार से ही पढना चहता है और उसे ऐसा ही करना भी चाहिये। अब प्रश्न ये उठता है कि गीता को पढने, समझने और जीवन मे ढाला कैसे जाये।
किसी भी विषय को सीखने के कई तरीके हो सकते हैं। एक तो ये कि हम उस विषय से सम्बंधित पुस्तकें लायें और स्वयं उनका अध्ययन करें। या फिर हम किसी शिक्षक की कक्षा में जायें और शिक्षक और अन्य सहपाठियों की सहायता से सीखें। लेकिन सिर्फ़ शिक्षक या ज्ञानीजन की बात सुनने और उसे पसन्द करने से काम नहीं चलेगा। एक और तरीका जिससे हम किसी भी ज्ञान को अच्छी तरह से सीख सकते हैं, और वो है हम प्रयोग करें और अपने प्रयोगों को अन्य साधकों से बांटें जिससे सभी लाभान्वित हों। आधुनिक विज्ञान को सीखने में प्रयोगों को बहुत महत्वपूर्ण समझा जाता है और विद्यालयों मे जीव-विज्ञान, भौतिकी, रसायन-विज्ञान आदि की प्रयोग्शालाओं में विद्यार्थियों को किताबी ज्ञान को समझने में बहुत सहायता मिलती है। गीता से सम्बंधित हज़ारों पुस्तकें दुकानों या पुस्तकालयों में उपलब्ध और गीता पर व्याख्यान देने वाले ज्ञानीजन भी बहुत हैं। लेकिन गीता की प्रयोगशालायें बहुत कम हैं।

-- कैसी हो प्रयोगशाला --
हमें ऐसी प्रयोगशालाओं की स्थापना करनी होगी जहां जन-साधारण मिलजुल कर गीता पढें-सीखें और उसे अपने जीवन में ढालें। सबसे आवश्यक ये है कि सभी साधक अपने अनुभवों को बाटें और उन पर खुली चर्चा करें। ऐसी प्रयोगशाला कुछ पडोसी मिलकर कर भी सकते हैं। यह आवश्यक नहीं कि हम किसी नई संस्था की स्थापना करें। अगर कोई समूह पहले से ही गीता पठन-पाठन या कोइ अन्य सत्संग का कार्य करता है तो वह अपने कार्यक्रमों में मामूली फेर्बदल कर गीता प्रयोगों को प्रारम्भ कर सकता है। समय समय पर किसी ज्ञानीजन को व्याख्यान पर आमन्त्रित कर सकते हैं। इस बात पर बल दिया जाये कि चाहे एक श्लोक एक महीने तक पढा जाये, लेकिन उस चर्चा कर उसे जीवन मे ढाला जाये। इस तरह की प्रयोगशालायें न केवल बच्चे व बडों को गीता में छुपे अथाह ज्ञान से परिचित करवायेंगी और उनके जीवन में श्रेष्ठ संस्कार लाने में सहायक होंगी।

Friday, July 07, 2006

किसानों द्वारा आत्महत्यायें

http://news.bbc.co.uk/2/hi/south_asia/5157954.stm
अभी बीबीसी पर पढा कि महाराष्ट्र में कई और किसानों ने आत्महत्यायें की हैं और जून २००५ से अब तक ६०० किसान अपनी जान दे चुके हैं। ऐसा नहीं कि ये कोइ एक गांव की बात हो। भारत के कई राज्यों की यही हालत है।
यह सही है कि इस ब्लोग को पढने वाले अधिकतर लोगों को इस बात से कोइ सीधा ताल्लुक न हो, लेकिन क्या यह वही महाराष्ट्र है जहां के फ़िल्म स्टार एक फ़िल्म के करोडों रुपये लेते हैं, या फिर जहां भारत की औज्ञोगिक राजधानी मुम्बई है।
मैं यह नहीं कहता कि किसी को बिना मेहनत-मशक्कत किये रोटी मिलनी चहिये।
एक तरफ़ मेरे जैसे लोग हैं, जिन्हैं पढाई की सुविधा माता-पिता से मिली, हमारे पास इतनी बुद्धि थी कि हम पढ सके (हर किसी का डाक्टर-इन्जीनियर-वकील बनना भी सम्भव नहीं या मुश्किल है), या भाग्य हमारे साथ था, या कोइ भी कारण रहा हो, लेकिन हमारे पास हर सुविधा ज़रूरत से अधिक ही है। वरन मैं तो यही कहूंगा हम अपनी सम्पत्ति या सुविधाओं को और बढाने में ही लगे रहते है। अच्छी तन्ख्वाह-बोनस, बडा मकान, बडी कार, विलायत में छुट्टी, बच्चों के लिये दुनिया की सबसे बेहतर शिक्षा, इत्यादि।

और एक तरफ़ वो गरीब किसान हैं मेरे महान देश में, जो सिर्फ़ शारिरिक श्रम करते हैं। क्या उनके परिवारों दिन में दो बार रोटी मिलने का भी हक नहीं? क्या शारिरिक श्रम का महत्व इतना कम है?

हो सकता है ये मेरी बुद्धि-विलासता हो कि मैं इस बारे में सोच रहा हूं। या फ़िर 'सरवाइवल ऑफ़ थे फ़िटेस्ट' को चलने दो?
या फ़िर मेरे जैसे पढे-लिखे लोग उन जगहों की जिम्मेदारी लें जहा वो पैदा हुए, पढे-लिखे, जिन जगहों के सन्साधनों (शहर, गांव, विद्यालय, विश्व्विद्यालय, इत्यादि) का उन्होंने उपयोग किया और सुनिश्चित करें कि हम उस जगह के जीवन मे कैसा सकारात्मक बदलाव कर सकते हैं।


--------------------------------------------------------------------------------
-- हिमांशु शर्मा
सेवा परमो धर्म: | www.kalakari.com

Monday, July 03, 2006

नेता बेईमान !

अब हमने अपने एक नेता मित्र से तो बस छोटी सी बात कही थी कि ये नेता लोग इतने भ्रष्ट, निकम्मे, लिप-सर्विस देने वाले क्यों है। इतने महान संस्क्रिति वाले देश की बागडोर इनके हाथों मे डेमोक्रेटिकली सोंपी गयी है तो उसका मखौल क्यूं उडाते हैं ये नेता लोग।

अब भई, जब हर कोई, जी हां हर कोई (बच्चा, बडा, बूढा, मीडिया, नौकर, अफ़सर, सेठ, ठेले वाला, मोची, साइकिल पंक्चर ठीक करने वाला, हरिजन, शिक्षक, बाबू, आदि आदि) जब चाहे नेताओं को बुरा भला कहता रहता है तो मैने कौनसी गुस्ताखी कर दी?
सच कडवा होता है, लेकिन दुनिया की हर दवाई भी तो कडवी है। जाहिर है, बात हजम होना तो दूर, ऐसी जम गयी कि टाले न टले।

खैर सदियों से जब जब मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाला गया है तो डंक भी सहे गये हैं। अगले ही दिन, मेरे फ़नफ़नाये नेता मित्र अपने कुछ नता-नेतियों के साथ आ धमके मेरे घर, शास्त्रार्थ करने।

१. एक अधेड उम्र के नेता बोले "भाइ साहब, आप ये बताइये, हमें नेता बनाया किसने? अगर हम भी कुछ पढे-लिखे होते तो डाक्टर-ईन्जीनियर बने होते और अच्छी नौकरी करके बीवी-बच्चो के साथ सुनहरे, सपने बुन रहे होते। हम तो ये कहते हैं, नेता बनना कौन चाह्ता है? सबसे पहले लोग बनना चाह्ते हैं इन्जीनियर, डाक्टर, एम बी ए, सी ए, वकील... अगर कुछ भी ना बने तो टीचर-वीचर, बाबू-क्लर्क। और जो निखट्टू कुछ भी ना "बन" सके, वो आ जाते है राजनीति में और साथ ही लोग उनसे ही सबसे ज़्यादा अपेक्षा करते हैं समाज सेवा की।"

२. एक शान्त सी दिखने वाली नेतिन बोली: भैया, हम मानते हैं हम गवांर है, लेकिन आपके देश भी तो हमारे ही हाथों में है। क्यों ना आप जैसे समझदार, पढे-लिखे लोग हमारे कन्धों पर हाथ रखकर कहते "हम आपके साथ हैं"। हो सकता है हमें "मैनर्स" नहीं है, लेकिन आप तो सब समझते हैं, धीरज रखकर कर हमारे साथ काम कर सकते हैं। गान्धी जी ने भी कहा था कि "पाप से घृणा करो, पापी से नहीं"। आपकी पढाई क्या आपको धीरज धरके हमारे साथ देश की सेवा करना नहीं सिखाती?

मेरे भी मन में कई विचार उमड रहे थे। सोच रहा था कि मैं भी ऐसे-ऐसे उत्तर दे सकता हूं कि इन सबके मुन्ह बन्द कर दूं। लेकिन फ़िर क्या? इनके मुन्ह बन्द करने से सब ठीक हो जायेगा? फ़िर मुझे लगा शायद इनके मुन्ह खुलने दो आज।

३. एक जवान खून नेता ने दहाडते हुए कहा: भैया, ये जो सरकार में अफ़सर, बाबू, क्लर्क हैं उनमे से कई आपके ही रिश्तेदार हैं। ये कोइ संयोग नहीं कि एक व्यक्ति का सरकारी नौकर रिश्तेदार, अपने ही मित्र के रिश्तेदार से रिश्वत ले रहा है और उसकी ज़िन्दगी को नरक बनाने पर तुला है। अगर किसी के बेटे-भतीजे का ट्रन्स्फ़र कराना हो तो कौन आता है हमारे पास सिफ़ारिश लेकर? आप जैसे पढे-लिखे लोग जब आइ. ए. एस. , आइ. पी. एस. जैसी कन्ट्रोलिन्ग पोज़ीशन मे आकर क्यूं नही व्यवस्था बदलते? कोइ उनसे क्यू नही कहता कि .......

४. बात को काटते हुए एक सधे हुये नेता बोले: भाई हमारी यह मन्शा कतई नहीं है कि हम एक दूसरे की कमी निकालते रहें और चाय-समोसा खाकर चलते बनें।

५. एक समझार युवा नेता बोले: एक बिन्दु ये है कि अगर आप देखें तो आजकल राजनीति कितनी खतरनाक। कौन कब हमें जान से मार दे कोई पता नहीं। प्रधान्मत्री से लेकर सरपन्च तक मारे जाते रहे हैं। कोई है तैयार इतने खतरनाक कैरीयर में आने के लिये। लेकिन अगर सब मुन्ह मोड लेंगे राज्नीति से तो फिर इस देश को चलायेगा कौन? अगर हम सभी स्वकेन्द्रित हो कर कठिनाएयों से दूर भागते रहेंगे तो क्या सभी भारत छोड कर अमरीका या विकसित देश चले जायें, यही हल है सभी समस्याओं का?

मेरे मन ने भी सोचा। मैं इतनी ऊर्जा, समय नष्ट करता हू एक बुरे नेता के बारे में बात करने में, क्या कभी मैने उन अच्छी नेताओं के बारे में सोचा है कि मैं उनकी कैसे सहायता कर सकता हूं जिससे उनकी ज़िन्दगी आसान हो और उन जैसे नेता और बढें हमारे इस महान देश में।

अलार्म ज़ोर से घन-घना रहा था। आज ओफ़िस भी जल्दी जाना था क्योकि कई लोग छुट्टी पर जो हैं। क्या बताउं, मेरे ऑफ़िस मे भी इतनी "पॉकिटिक्स" है कि अगर टाइम पर ना पहुंचो तो टांग खीचने वाले बहुत हैं।

Thursday, June 15, 2006

कन्या भ्रूणहत्या: राजस्थान मे सात डॉक्टर निलम्बित

http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews … nded.shtml
कन्या-भ्रूण हत्या कोइ नई बात/खबर नही रही। इसके नुक्सान से सभी वाकिफ़ है और एक सबसे बडा नुकसान तो ये कि आजकल शादी के लिये लडकीया मिलना मुश्किल हो गयी है। पर आदरणीय डाक्टर साहबो का निलम्बन कुछ-कुछ अनहोनी बात लगे। मुझे दुख है कि कई मेरे रिश्तेदार भी ऐसा काम करा चुके है।
अब भैया मेरे दिमाग मै हमेशा की तरह प्रश्न ये है कि हम क्या कर सकते है इस बारे मे सिवाय इस समाचार को पढ्कर ५ मिनट बाद भूलने के।
मेरे कुछ विचार:
१. इस बारे मै और जागरुकता फ़ैलाये। राजस्थान सरकार के मुख्य मन्त्री और सम्बन्धित मन्त्री जिसने
डाक्टर साहबो को निलन्बित करवाया है उसे शुक्रिया ई-मेल/पत्र भेजे ( http://www.rajasthan.gov.in/Rajasthan.asp )। इस समाचार का मित्रो-रिश्तेदारो से जिक्र करे और ये कहना ना भूले कि 'भ्रूण-हत्या करने वाले लोग कितने निक्रष्ट होते है', ताकी उन्हे भी महसूस हो कि ये गलत है।

२. इस बार किसी टीवी चैनल ने जासूसी करके समाज कल्याण विभाग मे शिकायत दर्ज़ कराई थी। टीवी चैनल जी को धन्यवाद। वैसे मै टीवी नही देखता, लेकिन अगर कोइ ऐसा अछ्छा काम करे तो उसे धन्यवाद तो दे ही सकता हू। हाल के कुछ वर्षो मे इस बारे मे बहुत बहस हो चुकी है कि इस तरह की जासूसी सही है या गलत। तो मेरा मानना ये है कि, अगर इन दरिन्दो को इस तरह की जासूसी करके नही पकडा गया तो शायद भगवान ही आकाषवाणी/जाल-वाणी करके इन लोगो के नाम बता पाये।

३. चिकित्सा, सेवा से हटकर एक व्यवसाय का रूप ले चुका है। किसी व्यवसाय की नीव ही लाभ-हानि के सिद्धन्त पर रखी होती है और इसमे समाजिक नियम और मरीज़ो की देखभाल अपना महत्व खो देते है।। साथ ही जब अन्य व्यवसाय के लोग लाभ-हानि के सिद्धन्त पर कार्य करके सम्पत्ति अर्जित कर सकते है तो चिकित्सक क्यो नही। ये एक बहुत ही गूढ प्रश्न है। हम चिकित्सको को कैसे समझाये कि जो कार्य वो कर रहे है वो व्यवसाय से बढ्कर सेवा है। इस बारे मै १०-११-१२ कक्षा के विद्यर्थियो से बात करके एक स्वस्थ वातावरण की नीव रखी जा सकती है। मै अपने विद्यालय के प्राचार्य से (जिसमे मै २० साल पहले १०वी कक्षा मे पढा था) इस बारे मे जरूर बात करून्गा।

और क्या किया जा सकता है इस बारे मे?

Friday, June 02, 2006

रिक्शे हटाओ, दिल्ली बचाओ (hindi)

आज ही समाचार मे पढा की दिल्ली के चान्दनी-चौक से रिक्शो को शीघ्र ही बेदखल किया जायेगा। अभी-अभी मेने दोपहर का खाना खाया था। बुद्दि-विलासी मन मे थोडी खलबली हुई तो सोचा कुछ लिख ही दू।
रिक्शे हटाने के कारण, जैसा मेरे समझ मे आया:
१. रिक्शो के कारण यातायात बहुत धीमा हो जाता हे। बहुत भीड हो गयी हे, मुख्य रूप से पुरानी दिल्ली मे। दिल्ली की सुन्दरता भी रिक्शो से फीकी पड जाती हे।
२. रिक्शे माफिया के कारण कई रिक्शे बिना लाइसेन्स (लाइसेन्स को हिन्दी मे क्या कह्ते हे? सरकारी अनुमती ?) के चलते हे।
३. रिक्शे चलाने वाले अधिकतर बाहर से आते हे। इसमे कुछ असामाजिक तत्व भी आ जाते हे।

मेरे विचार इस बारे मे:
१. रिक्शो के बजाय भीड कार-मोटर्साइकिलो से ज्यादा हुइ हे। भीड को नियन्त्रित करना आवश्यक हे। एक उदाहरण का उल्लेख करना चहून्गा। जब सिन्गापुर की सरकार को ये महसूस हुआ कि उनकी धरती ज्यादा कारो को सहन नही कर पायेगी, तो उन्होने नई कारो पर रजिस्ट्रेशन शुल्क कई गुना बढा दिया। लेकिन साथ-ही-साथ सरकार ने लोगो के आवागमन के लिये बस-टेम्पो की सन्ख्या भी बढा दी। अब हालत ये हे कि, बहुत कम लोग कार खरीद पाते हे, लेकिन फिर भी उन्हे कोइ परेशानी नही होती। अब कोइ ये ना कहे कि इसमे नागरिको के मौलिक अधिकारो का हनन हो रहा हे।
२. बिना लाइसेस के रिक्शो को अगर रोकना से तो सरकार जी से मेरी विनती हे कि लैसेन्स प्रक्रिया मे थोडा सेन्स पैदा करे और उसे जन-साधारण के लिये आसान बनये और नियम सख्ती से लागू करे।
३. दिल्ली जैसे मेट्रो या कॉस्मोपोलिटन (हिन्दी क्या होगी ?) का वजूद ही बाहरी लोगो के आगमन की वजह से हे। अमरीका के न्यूयार्क शहर मे ४०-५०% लोग बाहर के राज्यो से आकर रहते हे। यही हाल कनडा के टोरन्टो का हे। तो भई, कानून व्यव्स्था मे सुधार और इसने लोगो का विश्वास और भागीदारी बहुत अहम पहलू हे।
खेर, बाते हे बडी-बडी, पर अब ये सब करे कौन। राजनीति मे तो मेरे जैसे प्रतिभावान और समझदार लोग जाते नही और जो दिल्ली के नौकरशाह हे उनका तो ऊपरवला ही जाने। बस एक चमत्कार की आशा हे, हे ऊपरवाले।

--हिमान्शु शर्मा www.kalakari.com

Tuesday, May 30, 2006

Morning News-Paper

Recently I was listening to a local radio in New Jersey where they were talking about an initiative taken by schools to get students into reading news-papers every morning.
I remember, when I was in middle school in India, every morning one student had to read main news items right after prayers. We were reminded again and again, how important it is to read news papers.
For last few days I was thinking about news media and type of news they give us. The only news all the news media give me is of war, violence, vulgarity. Anything tragic, sad, war becomes instant news, while anything good gets a place on the last pages. Then I thought of millions of people who spend 30-60 minutes of the morning time on these news papers.
Few points:
1. News paper with a cup of tea-coffee is supposed to freshen-up an individual. Do you really think that news about war, bombing, suicides, murder, dirty politics makes you feel fresh?
2. When we get up in the morning, we are already fresh and we should try to work on some creative/constructive work rather than reading dirty news. Morning walk, working in the garden, plant trees in your street, study, read a good book, do Yoga/exercise might be few things you might be interested to utilizse your energy in the fresh morning.
3. Even if you want to read news paper, please do it after lunch or in the evening ( instead of watching T.V. ). This way neighbours can share news-papers and save some paper/money. People can read news in groups and create constructive discussion.

I have decided to shun news papers (including in papers and online) till 12pm.
What do you say?

Tuesday, May 02, 2006

Allergy Again

Recently I read in news that this year, the US environment has the record high level of pollen count. For last 5 days, my colleague is suffering with worst allergy he has ever experienced, itchy/red eyes, sneezing, running/bleeding nose, etc. This Sunday I was visiting my friends place and came to know that his daughter has developed pollen allergy and lactose intolerance. In my last 6 years of stay in the US, I have noticed that 60-70 % of my friends have developed allergy after 3-4 years living in the US.
As far as I understand, allergy means that our immunity has gone down and it can't fight irritations because of pollens.

My observations:

1. My friend, whose daughter developed allergy this year, moved to a first floor apartment last year. Similarly my other friend also moved to first floor apartment last year. Both the cases resulted in severe allergy this year.

2. My friends, and myself, who didn't change their eating habits after coming to the US have NOT developed allergy. Hence, people who eat home-made food, take lunch to office rather than eating out, don't consume junks like soda, coffee, breakfast-cereals, etc. regularly have fewer occurrences to allergy.

3. People doing physically exercise or are engaged in outdoor sports have less severe symptoms.

What do you think?

Friday, April 14, 2006

Reservations in IITs/IIMs in India

IITs and IIMs are considered as the best face India can put up in education. Reservations in these institutions is hitting society at all those places where it really hurts.

IMHO Pro & Con on reservations:

CON:
1. Reservation will leave many general category candidates frustrated as they will less seats available for them.
2. A non-merit based candidate studying in such institute has less
possibilty of becoming a better professional than a merit based candidate. This is negative ReturnOnInvestment on the people's tax money (Govt supports these institutes by tax collected from people).
3. Tarnish the image of IIT/IIM (of India too).

PRO:
1. It gives a "chance" to OBC guys to get into top-notch institutes and get an opportunity to improve which they can never get without reservation. Because of reservation we have many lower-caste candidates serving India as IAS/IPS officers, which they could have never dreamt without reservation. An OBC candidate can be a role-model to his/her community and inspire others. Many lower-caste candidate can't afford to have resources to compete with general category candidates. In the US, there is a debate going on about success in SAT exams and whether students who can afford to pay private training are performing better than those who can't.

2. Anyway, 90% (or more ?) of the general candidates leave/want_to_leave India after studying IIT/IIM to serve MNCs. Lets give a chance to other candidate who might stay and serve India. Need to wait and watch if this really works.
3. We should remember that GOI (Govt of India) supports most of the IIT/IIM budget. If you compare with US where people take big loans to study top-notch schools (~$60000 medicine, ~$30000 MBA, ~$30000MS etc.) and have to pay through nose for 5-10 years. Very few course (mainly masters in technology) get scholarships/grants. SO IF ITS FREE education, why not let everyone enjoy it. :-)
4. Lets see how every society benefits from such great schools and analyze them or change the structure for benefit of the country.
5. General category candidates can go to other private institutes in India or outside (US, Australia, etc.) take loans and study. They can easily get loans as compared to an OBC candidate.
6. It is a fact that we have VERY few top institues as compared to the candidates who want to get into them. This reservation should unite people to force the govt to open more such institutes and make them autonomous/self-financing.
7. This will give more energy in the direction where people will demand reservation based on financial standing rather than caste. This requires a long waited change and needs fresh youth to come into politics and be decision makers. It will unite general category vote-bank.

I feel that no issue can be solved in isolation since all issues are
intermigled with each other. Lets analyze and think what we
did/are_doing/can_do.

Tuesday, April 04, 2006

Kids: The life-energy at its best

Childish, naive, ignorant, student, learner are few synonyms a kid's world is usually associated with. When I tried to have a closer look at the Kid's world, I find exactly the reverse. No KIDDING.
1. Energetic: Try to play with a kid for couple of hours and you would realize how much energy they have. It is endless pool of curiosity and readiness to play, to know things. No wonder toddlers feel bad when it is time to sleep, because they want to keep playing and doing things. Everything interests them, from listening stories, doing household chores, fixing toys, walking/playing in the part/woods, etc. No wonder, fitness experts say that it is better to play with kids than going to a gym.
2. Freshness: Kids mean freshness. They live in the present. One learned saint said that this is the best thing we can learn from kids. Live life in the present and sense the freshness of life first-hand. Kid's life has no place for grudges, sadness, animosity, etc. Kids do cry or get angry/grumpy at times but the next moment everything starts afresh, with new energy as ever.
3. No cheating: There is no malice in a kid's mind. Momentary actions erupting from curiosity might hurt others but these actions are not due to animosity from inside their hearts. As kids live in present, everything starts new and is as enchanting as anything ever before. They have no motivation to cheat.
4. No materialism: By nature, a kid doesn’t accumulate worldly things. They don't have huge demands or expectations from life. Small things make them happy and overjoyed. Small happy world but full of adventures. They don’t need expensive cars, houses, gadgets. Nature and living being is their biggest toy.
5. Love to animals: Every kid loves birds, animals. They want to be with them, take care of them. The most loved cartoon characters are based on animals.

So, when does a kid starts changing and becomes a modern man or women? When does a kids stops living in the present, loses energy, starts eating those animals which (s)he loved in childhood, stops smelling and exuding freshness and starts running after materialism and future?
It is not a question to be answered by science, we need to look inside ourselves to define it and try to answer it.

Friday, March 24, 2006

Where are all the pomegranates?

I live in New Jersey and I remember, last year we enjoyed lots of pomegranates. It is such a delicious, nutritious and all the x-cious fruit. And many (especially Indians) know that the cover of pomegranate is great remedy for sore throat, cough, etc. But this year, we only saw pomegranate only once in stores, that too in the beginning of Feb. Though, this time of year pomegranates are available in stores in plenty. But this year, no sign of it for last 5-6 weeks.

So what changed in last one year. It is the great "POM" juice. For the ones who didn’t notice, last year a pomegranate juiced was launched with a brand name "POM", "The wonderful POM". “POM” advertisements are sticking in all trains, buses luring people with punch lines like “Cheat Death”, “Surprise your doctor”, “Power of anti-oxidants”, etc. "POM" has become such hype that every magazine termed it as the best thing to happen to juice because it has maximum anti-oxidants. Now, why not call pomegranate as the best fruit, why not eat the whole fruit? But gullible public believes what corporations tell.

Some common sense reasons to avoid juice and eat whole fruits.
1. Fruit is a complete package with fiber, carbs, protein, vitamins etc. given to you by Mother Nature who knows what is good for us than anybody else.
2. We might take in juice more then good for us. This might be harmful. Can you eat 8 oranges in one go? But I am sure you can drink 2-3 cups of orange juice.
3. Please read http://pediatrics.about.com/od/weeklyquestion/a/04_fruit_juice.htm and http://recipestoday.com/resources/articles/fruitjuice.htm : Even pediatricians recommend that too much juice reduces appetite in infants/toddlers because lot of juice has lot of calories.
4. Our body needs solid diet to sense that it is filling. Too many drinks with lots of calories cheat our body sensors and we don’t get a feeling of fullness. Hence we over-eat.

Well, we get all other types of juices, I am ok with them because we also get fruits for them. But with this “Wonderful POM”, pomegranate juice has swept away all pomegranate fruits from shops.

Well, I have saved come coverings of pomegranates for future use, very precious.

Thursday, March 16, 2006

Use of cell phones in India

Today only I read a news item saying 10-20% of cell-phone usage in India is for 'missed-call's. 'Missed-call' has become such a common day-2-day term that it should be added in an english dictionary.

missed-call; noun: an action by a cell-phone caller where he/she drops the call only after 1-2 rings. Mainly used to indicate to the recipient about caller's interest or presence. A 'coded' call which is free.

When I visited India last, it took me a while to understand the real 'meaning' of missed-call. No wonder, even in US, I get missed calls from India and I am supposed to recollect the caller's identity from the number and call them back.

Common usage of missed-call:
1. Caller wants the recipient to call him back at recipient's convenience.
2. Caller thinks it is less expensive for recipient to call-back. A hang-over from last decade when cell-phone calls were 'really' expensive.
3. Some people have coded missed-calls. like "1 missed-call=call-back whenever get time", "2 missed-calls = call-back urgently", "3 missed-calls = call at some specific number like home/office/cell etc/". Similarly other missed-call frequencies can be agreed upon and encoded.
4. Missed-calls are also used as reminder or morning wake-up alarm. For instance, people decide in advance that a missed-call in the morning means he is ready for pre-decided task/job.
5. A regular evening missed-call to home-maker wife: husband is reaching home in 5 minutes, hence get the tea ready. :-)

Any other usage you can think of or came accross?

Friday, March 03, 2006

US President Mr Bush's india visit

I noted following items from all the storm going on in the media over this visit.
1. Right before visit, news was hot about protests happenning whole over India. People were confused over the real agenda of the visit, but categorically said that Bush is a terrorist after what he did in Afghanistan and what he is doing in Iraq.
2. Some people voted to give due respect to a visitor as per Indian traditions and they seemed eager to understand the use and advantage of the impending nuclear deal between host and guest.
3. Some people (mainly NRIs, industrialists) wanted India to take advantage of the situation and giev a good impression on guests.
4. CEOs of US companies (visiting India with US President) found indian infrastructure and bureaucracy discouraging for foreign investment. They think India should open up foreign investment in insurance, power, roads, ports, etc. to boost economy.
5. Few publications in the US painted a rosy picture of India as the next big thing in teh world economy.
6. Apart from this, there was no other news. It seemed like nothing else was happenning in India.

I agree that US president is most powerful man on the planet. But does this mean we forget our priorities and issues we want to get addressed. I remember when Indian Prime Minister Mr. Manmohan Singh was on US visit last year, few elements of indian media picked up some issues which needed to be discussed between India and US.
Why no one in media raised such issues this time. Some of the issues in my mind:
1. Terrorist activity in Kashmir and east India and its support from foreign elements. As US expects whole world to condemn any terrorist acts on americans (on US soil or not), we should expect the same from them. I have noted that whenever any visitor visits US, Mr Bush says few lines to condemn terrorism and his conviction continue his fight against it.
2. Immigration issues: Due to slow permanant immigration process, many skilled workers (in thousands) have to lead a indecisive and tormenting life. They get exploited by employees and have minimal rights/information. US should make the process more transparent and predicatable.
3. It has become a common story about newly married indian brides getting ill-treated in the US. NRIs go to India and marry indian girls on false promises and then exploit the bride's family for dowry or never take their bride's to the US. High-level government co-operation is required to nab such culprits.
4. Foreign investment into India: Before we open our doors for foreign companies, we should ensure we have proper labour, pollution, industry, human-rights, etc. laws in place. It is no secret that foreign companies are attracted to India because of cheap labour and ill-equiped law-system. They take advantage of this and end-up creating environmental and human-rights hazards. Coca-cola plant polluting ground-water in Kerala, French ship laden with deadly lead coming to Gujarat for dismantling, pharamceutical companies doing testing on indians in India without proper safety procedures, etc. are few examples. Many such tragedies don't even make it to the news.

I feel that news media should raise such issues at such times and run a follow-ups on the progress.

What do you guys feel? Any other issues we should (have) raised?