देखो, कोशिश करूंगा...
पता नहीं कब यह अमृत वाक्य जिव्हा में चढ गया। अब लगता होता है कि इस शब्द के अन्दर का भाव कहीं बहुत पीछे छूट गया है।जब भी कोइ मुझसे कुछ सही करने को कहता है, जवाब होता है "देखो, कोशिश करूंगा..." (आगे से संक्षिप्त में दे-को-क, लेकिन यह दे-कोक या दे-पेप्सी नहीं है जनाब) । यदि कोइ अच्छी आदत अपनाने को कहता है, फिर वही "दे-को-क" । जीवन के बाकी कार्यों के लिये शायद ही मैं दे-को-क की शरण में गया हूँ।
दे-को-क का अब जो भाव रह गया है, वह है टालने वाला, मतलब "ठीक है ठीक है, देखेंगे..." । आखिर क्यों होती है टालने की ज़रूरत। मै क्यों नहीं कह पाता कि "मैं फ़लाँ काम नहीँ कर पाउँगा" या फिर "मैं फ़लाँ काम अवश्य करूंगा"।
ऐसा बहुत कम बार होता है जब वास्तव में टालने की आवश्यकता हो। ज्यादातर तो पता होता है कि बताया गया काम करना है, लेकिन किसी कारणवश नहीं कर पाता हूँ। उसके बाद मुझे यथास्थिति स्वीकार करने में झिझक होती है और इस स्थिति से बाहर निकलने में सहायता माँगने में आती है ढेर-सारी शर्म (शर्मा जो हूँ)। ठीक इसी समय, दे-को-क की छत्र-छाँया में जाकर ही आराम मिलता है।
लेकिन साथ ही दे-को-क से मेरी काम टालने की और दूसरों की बात अच्छी तरह से ना सुनने की आदत बलवती होती जाती है। कोशिश तो दूर, उस काम को करने के बारे में खयाल भी नहीं आता। यह बात मैंने अमरीका में आकर देखी/महसूस की कि अधकचरे मन से कहा दे-को-क कितना नुकसानदायक हो सकता है।
मुझे यह सीखना है कि मैं विश्वासपूर्वक यह कह पाऊँ कि या तो "मैं फ़लाँ काम सच्चे मन से करूंगा" या "मैं फ़लाँ काम करने में असमर्थ हूँ"। अगर सच्चे मन से कार्य सम्पादन का प्रयत्न किया और किसी कारणवश असफल रहा, तभी मैं कह पाऊगाँ कि "पूर्ण/आंशिक असफलता का कारण ये है" और मुझे इसे पूर्ण करने में सहायता चहिये या फिर "भैया ये काम नहीं हो सकता "।
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