Monday, December 24, 2007

कवि और रवि

-- कवि और रवि ( दी पोएट एण्ड लाइट )--

नोट: यह रचना एक सच्ची घटना पर आधारित हो सकती है। अगर है तो हमें बतायें और ईनाम पायें। धन्यवाद!

एक बार एक कवि (कविता लिखने वाला) और एक रवि (दसवीं में पढ़ने वाला आपकी तरह मनचला छात्र) एक साथ ( हाँ भई पास-पास और एक ही समय ) ट्रेन में बैठे जा रहे थे। मैं तो कहूँगा या तो भगवान या फिर ट्रेन, सिर्फ़ दो ही चीज़ें ऐसी हैं दुनिया में जो दो अनजान लोगों को न सिर्फ़ मिलाती है बल्कि काऽऽऽऽऽऽऽऽफ़ी देर तक मिलाऽऽऽऽऽऽऽऽती रहती हैं। बॉलिवुड की कई लीचड़ फ़िल्में इस बात का घटिया प्रमाण हैं।

खैर ! बात को और लम्म्म्म्बा ना खीँचते हुए, कवि जी किसी बड़े कवि सम्मेलन (अपने सम्मेलन सबको बडे़ लगते हैं जी) में अपनी कविता पहली बार पढ़ने जा रहे थे। आपमें से कई लोग-लोगिनियाँ उनकी मन:स्थिति या दिल:स्थिति समझ गये होंगे, या फिर बाल की खाल निकाल के बताऊँ?

रवि जी अपनी परीक्षा देने जा रहे थे और उनका आत्मविश्वास चेहरे से टपका जाता था। दसवीं की परीक्षा दसवीं बार जो दे रहे थे। रवि जी वैसे जीवन की परीक्षाओं में पास होते थे, लेकिन इन स्कूली परीक्षाओं में उनकी गोटी नहीं चलती थी। अब भैया, भाग्य से लड़ा तो नहीं जा सकता। काश! लड़ा जा सकता। छोड़ो भी, लड़ाई की बातें फिर कभी।

कवि और रवि के आपसी संक्षिप्त परिचय के बाद, कवि जी ज़ोर ज़ोर से अपनी कवितायें घोंट रहे थे, यानी तैयारी कर रहे थे। और रवि जी अपने जीवन के प्रायोगिक अनुभव से उनका मन ही मन जवाब दे रहे थे। सुनिये, मतलब देखिये, मतबल पढ़िये :

कवि: तु ही मेरी कविता है
रवि: कहाँ ? .... चल ठीक है, होगी
कवि : तेरे बिना चारों और अन्धेरा है
रवि : अबे आखँ हैं या बटन, इनको खोल
कवि: जहाँ देखूँ, अन्धेरा ही अन्धेरा है
रवि: लाइट जला

अचानक रवि जी के दिमाग में बल्ब जला और उन्हैं सूझा कि पढ़ाई तो ये ’कवितायें’ करने नहीं देंगी, क्यूँ ना इन्हैं लिख डालूँ। और रवि जी कवि जी के उवाच और अपने मन की भड़ास एक काग़ज़ पर उकेरने लगे।

कवि: तेरे दिल की गहराइयों में डूब रहा हूँ में
रवि: डूबके मर क्यों नहीं जाता
कवि: जब भी आँखें खोलता हूँ, तुम्हैं ही पाता हूँ
रवि: "स्टार-दस्त" (मतबल "स्टार-डस्ट", सार एक ही है) आँख पर रख कर मत सोया कर
कवि: मैं तो हूँ तेरे खयालों की गन्ध का छोटा सा प्यादा
रवि: अल्लाह की कसम मैंने नहीं पादा
कवि: तुम तो मेरी xxxx (सेन्सर्ड) हो
रवि: तू भी कम xxxx (सेन्सर्ड) नहीं
कवि: तुम होती तो ऐसा होता
रवि: कैसा ?
कवि: तुम होती तो वैसा होता
रवि: अबे साफ़-साफ़ बोल। बढ़िया है, मैं नहीं हुइ।
कवि: अब दिन-दिन नहीं रहे तुम्हारे बिना
रवि: बोले तो रात
कवि: और रात-रात न रही
रवि: सुबह हो गयी, चाय पी
कवि: कश्मकश में हूँ कि, किसे कहूँ, क्या कहूँ, कैसे कहूँ
रवि: डॉक्टर से मिल, टेस्ट करा, दवाइ ला, इलाज करा।

ट्रेन का सफ़र खत्म हुआ। जहाँ कवि जी के मन में सम्मेलन में कविता पढ़ने की सुगबुगाहट थी, वहीं रवि जी के मन में परीक्षा को दुत्कारने की पुरानी चाहत।

खैर हुआ वही जो धोनी (जी हाँ होनी नहीं धोनी) को मज़ूंर था। कवि जी के पीछे-पीछे रवि जी भी अपना काग़ज़ लेकर पहुंच गये कवि सम्मेलन। कवि जी की कविता को ’आह’ मिली तो रवि जी को ’सराह’। कवि जी की भद पिटी और रवि जी पर खूब ताली और साथ ही "हास्य-व्यंग्य की गम्भीर कविता" का ईनाम भी पा गये। फ़िलहाल रवि जी को बॉलिवुड से ऑफ़र का इन्तज़ार है।

--हिमांशु शर्मा

(a)२००७-८ सर्वाधिकार असुरक्षित

१. xxxx- अगर पाठक १८ साल से बड़ा है और सेन्सर्ड शब्दों को जाना चहता है तो अपनी दसवीं की अंक-तालिक (नोटेराइज़्ड) एक पता (स्वयं का ही) लिखे और टिकट लगे लिफ़ाफ़े में भेजें।
२. आपका नाम गुप्त रखा जायेगा। हमारी "मर जायेंगे पर नाम नहीं बतायेंगे" पॉलिसी पर हमें गर्भ है।
३. याद रखें, इन सेन्सर्ड शब्दों के बिना रचना का मज़ा कुछ भी नहीं। अगर आप अनपढ़ हैं तो हम फोन पर या व्यक्तिगत रूप में आकर ये शब्द बताने की व्यवस्थ कर सकते हैं।

Wednesday, September 19, 2007

मिच्छामि दुक्कड़म

गत वर्ष की तरह ( http://kyari.blogspot.com/2006/08/blog-post_29.html ) इस वर्ष भी पर्यूषण मनाया जाये। ज्ञानी-जन कह गये हैं कि दूसरों को क्षमा-दान देने में और दूसरों से क्षमा-दान माँगने में हमारी बहुत सारी मानसिक-शारीरिक समस्याओं का हल निहित है।

नमस्ते!
यदि मैंने जाने-अनजाने अपने विचार, शब्द या कार्यों से आपको व्यथित किया है तो पर्यूषण के पावन पर्व पर मैं हृदय से आपसे क्षमा माँगता हूँ। साथ ही मैं सभी जीव-अजीवों को क्षमा करता हूँ और मैं सभी जीव-अजीवों से क्षमा माँगता हूँ। मैं सभी जीव-अजीवों से मित्रता का व्यवहार करूँगा। मैं किसी से दुश्मनी का व्यवहार नहीं करूँगा और मैं सभी से क्षमा-प्रार्थी हूँ।
~!~!~!~!~
मुझे महसूस होता है कि मेरे मन में कई बार कई लोगों के प्रति कोइ बुरी बात (ईर्ष्या, घृणा, अहित भावना, क्रोध, द्वेष, आदि) उत्पन्न होती है। अधिकतर ऐसे विचार क्षणिक होते हैं लेकिन कभी-कभी ये बहुत दिनों तक मन में जगह बना लेते हैं। इस तरह के विचार मेरी क्रियात्मकता और सकारात्मक सोच को गलत तरह से प्रभावित करते हैं। दूसरी ओर मेरे जाने-अनजाने में किये गये अनुचित कार्य दूसरों को आहत करते है। भविष्य में मेरा प्रयास रहेगा कि में किसी को आहत न करूँ और अगर कर भी दिया तो क्षमा-याचना के लिये तत्पर रहूँ। अत: मेरा विश्वास है कि पर्यूषण पर्व मेरी मानसिक व शारीरिक शक्ति को एकजुट करने और उसे समाज सेवा में लगाने में सहायक होगा।

क्षमा-प्रार्थी,
हिमांशु

Thursday, September 06, 2007

सीसे का खेल

-- सीसे का खेल --

अब इसमें बेचारे मैटेल (देखें http://www.npr.org/templates/story/story.php?storyId=14176496 ) की क्या गलती कि जो खिलोने वो दुनिया भर के भोले-भाले बच्चों के लिये बनाते हैं उसमें सीसा ( metal lead ) था वो भी ’थोड़ा सा’ जी हाँ चिन्ना सा। अब यह तीसरी ही तो गलती थी पिछले कुछ दिनों में।
विकसित देशों में भले ही सीसा युक्त रंगों को लेकर कई वर्षों से खीँचतान होती रही है लेकिन भारत जैसे ’विकासशील’ और अन्य गरीब देशों को तो शायद ही यह समझ आये कि ये बवाल क्या है। सब जानते हैं कि भारत में भी आजकल ’मेड इन चाइना’ खिलौने शहर से लेकर गाँव तक हर दुकान पर मिल जायेंगे। हम जब भी भारत जाते हैं तो हमें ’मेड इन चाइना’ ही उपहार मिलते हैं।

मैंने यह पाया है कि अमरीका में इस बात की चर्चा में चिन्ता सिर्फ़ यहाँ के बच्चों की है, बहुत कम बातें इस बात पर हो रही हैं कि किस तरह अमानवीय स्थितियों मे चीन के कारखानों के गरीब मजदूर दुनिया-भर की चकाचौंध भरी मॉल में बिकने वाले इन उत्पादों को इतना सस्ता बनाते हैं। इन बातों को सोचने में शायद हमारे दिमाग की बुद्धि-मत्ता मात खा जाती है।

अब यह सब उपभोक्ता-चलित अर्थव्यवस्था का ही तो कमाल है। जब देखो बच्चों को उपहार में खिलौने दिये जाते हैं, इस आशा से कि उनका मनोरंजन होगा, मानसिक विकास होगा और सबसे बढ़िया वो हमारा (बड़े लोगों का, माता पिता का) दिमाग कम चाटेंगे और हमें कुछ ’साँस’ लेने की फ़ुर्सत देंगे। अब देखिये अमरीका में खिलौनों का कारोबार एक बिलीयन डॉलर (करीब चार-हज़ार करोड़ रुपये) का है।

एक और मुख्य बात आजकल की अर्थव्यवस्था की है वो है कि सरकारों और लोगों (निवेशकों) को कम्पनियों के वार्षिक वित्तीय परिणाम से ज़्यादा मतलब होता है, न कि उनके कार्य करने के तरीके और मानवीय पक्ष से। यहाँ देखें http://www.minyanville.com/articles/index.php?a=13982 कि किस तरह यह सिद्ध किया जा रहा है कि हमें इससे कोइ फ़र्क नहीं पड़ता कि कोइ कम्पनी अपने मजदूरों का कैसा खयाल रखती है, पर्यावरण के प्रति कितनी जागरुक है, आदि। हमें सिर्फ़ मतलब होना चाहिये कि उसके वार्षिक वित्तीय परिणाम कैसे हैं।

विकसित देशों मे तो एफ़ डी ए ( FDA ) जैसी सरकारी संस्थायें हैं जो कम्पनीयों के उत्पादों पर नज़र रखती हैं और यह सुनिश्चित करती है कि उनसे मनुष्यों और पर्यावरण को नुक्सान तो नहीं हो रहा है। दुर्भाग्य से अमरीका जैसे देशों में भी ऐसी संस्थाओं के पास संसाधनों की कमी होती जा रही है।

कल ही एक और खबर आई कि पॉप-कॉर्न बनाने वाली मशहूर कम्पनी कॉन-एग्रा ने अपने पॉप-कॉर्न में से एक रासायन डाइएसिटाइल को हटाने की घोषणा कि जिसे फ़ेफ़डों की एक घातक बीमारी का कारण बताया जा रहा है। पॉप-कॉर्न में जो बटर (घी) की खुश्बू होती है वो इसी रसायन के कारण होती है। देखें http://biz.yahoo.com/ap/070905/popcorn_lung_conagra.html?.v=8 । इस कम्पनी का "ACT II" पॉप-कॉर्न अमरीका में लाखों बच्चों-बड़ों द्वारा खाया जाता है। जी नहीं कम्पनी ने यह निर्णय किसी दैवीय हस्तक्षेप के बाद नहीं किया, बल्कि डेनवर नेशनल ज्यूविश मेडिकल सेन्टर के एक फ़ेफ़ड़ों के विशेषज्ञ द्वारा अमरीकी केन्द्रीय सरकार को लिखे एक पत्र के बाद किया जिसमें उन्होंने लिखा कि उनके पास ऐसा पहला उदाहरण है जिसमें एक उपभोक्ता ने वर्षों तक उस माइक्रोवेव पॉप-कॉन को खाया और उसे फ़ेफ़ड़ों का घातक रोग हुआ।

अब सबसे आश्चर्यजनक बात ये है कि ये खबरें प्रकाश में इसलिये आई क्योंकि ये कम्पनियाँ "बडी़" हैं या फिर मिडिया द्वारा इन्हैं ना छापना ना-मुमकिन था। लेकिन ऐसी बहुत सी खबरें हमें पता भी न चल पायें अगर सरकारी जाल-घरों पर वे उपलब्ध ना हों। यह http://www.fda.gov/opacom/7alerts.html एक ऐसा ही जाल-घर जहाँ "एफ़ डी ए" (US FDA) यानी "अमरीकी खाद्य एवं दवा प्रबन्धन" उत्पादों के बारे में सूचना देता है और आपको कई चौकाने वाली सूचनायें मिलेंगी। देखें http://www.cpsc.gov/ जहाँ अमरीकी उपभोक्ता उत्पाद संघ उत्पाद सुरक्षा के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी देता है और मैटेल की कहानी भी यहाँ है http://www.cpsc.gov/cpscpub/prerel/prhtml07/07301.html । यहाँ http://www.usa.gov/Citizen/Topics/Consumer_Safety.shtml हर तरह की उपभोक्ता सुरक्षा के बारे में जानकारी है चाहे वो कार हो या बैंक या फिर पानी या केबल टीवी।

लाभ के पीछे दौड़ती कम्पनियों और उत्पादों के पीछे दौड़ते लोगों की इस पकड़म-पकड़ाई को थोड़ा धीमा किया जाना चाहिये। क्या हम (उपभोक्ता) कुछ कर सकते हैं या फिर हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहें और दुआ करें कि सरकार कुछ करे या फिर हिन्दी फ़िल्म की तरह मन्दिर जायें और कहें "खुश तो बहुत होगे तुम" ( पार्श्व संगीत हम्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म ......... )

-- हिमांशु शर्मा

Tuesday, July 10, 2007

मेरी प्यारी बिकाऊ भारतीय संस्कृति

-- मेरी प्यारी बिकाऊ भारतीय संस्कृति --

जब से भारत के बाहर मेरे कदम हुये, भारतीय संस्कृति के दर्शन हुए।
भारतीय संस्कृति लगी बिल्कुल नयी, या फिर हम थे उसके लिये नये।

रेस्तराओं में संस्कृति के नाम पर होती मौके-बे-मौके शाही दावतें में,
'देसी' लोग आत्महत्या करते भारतीय किसानों पर आश्चर्य जताते देखे गये।

विदेशी फ़ैशनेबल रहन-सहन और खान-पान की चमक दमक में,
आयुर्वेद, सादा जीवन को भूलकर, ' हैवी इण्डियन फ़ूड ' को नाक-भौं चिढ़ाते देखे गये।

रेडियो-टीवी पर अनगिनत रिमिक्स फ़ूहड़ गानों और विज्ञापनों के मेलों में,
संस्कृति के नाम पर बच्चे-बड़े-बूढे़ देखते-सुनते-सुनाते देखे गये।

टीवी के बोझिल सीरीयलों और घटिया हिन्दी फ़िल्मों की वादियों मे,
माँ-बाप अपने बच्चों को भारतीय संस्कृति दिखाते देखे गये।

बॉलिवुड के सितारों के चलताऊ और बदरंग 'शो' की लाइनों में,
'सेकण्ड जेनेरेशन' अमरीकी भारतीय, 'इण्डिया इज़ कूल' के नारे कहते देखे गये।

पहले जो माँ-बाप गर्व से अपने बच्चों से करते थे अंग्रेज़ी में गुटरगूँ,
अब वो अपने अनमने बच्चों को समझाते-बुझाते, हिन्दी-कोचिंग में देखे गये।

जो भूखा-नंगा भारत, NGO वाले दिखाते रहे हर फ़ण्ड-रेज़र में,
उसकी बातें सिर्फ़ पार्टी-गौसिप में सब भारतीय करते देखे गये।

वीकेण्ड की दावतों में बातें हुई 'ग्रेट इण्डियन कल्चर' और वेदों के अथाह ज्ञान की,
जिम्मेदारी के नाम ये 'ग्रेट इण्डियन', नेताओं को गाली देकर पल्ला झाड़ते देखे गये।

-- हिमांशु

Wednesday, June 06, 2007

welcome to Gaga Yoga

If you are in New Jersey (Edison area) please join.

Welcome to Gaga-Yoga:
When: Every Saturday morning 10 am.
Where and What is it: an hour of gathering in Colonial Park (Somerset http://www.somersetcountyparks.org/activities/parks/colonial_pk.htm ) to celebrate Laughter Yoga and Pranayam. Its is free.

Laughter Yoga: "Laughter is the best medicine". Since ninties when it was first started by Dr Madan Kataria of Mumbai, the laughter Yoga has evolved as a beautiful tool to de-stress your mind and body. 30 minutes of this will certainly revive you.

Pranayam: Does it need intro? Ayurveda believes that mind and stomach are the roots of all diseases. 30 minutes of pranayam including Bhasrika, Anulom-volom, Kapal-bhati, Ujjai (good for thioriod functioning and females), bhramari, etc. energizes the roots of our body. Some yoga practitioners will share their experience.

Plus: some play-in-the-woods adventure, boating and exercises for kids make it an ideal excuse to go out in summer.

Things to take: a napkin/towel. a floor mat (incase you don't wanna sit on grass).

Call:
732-632-7581 (Deepak)
201-563-8015 (Himanshu)
201-264-0329 (Reetesh)

or email " kyarilal AT yahoo DOT com " for further info.

Directions:
1. On 287 N take exit 10 and keep right. (park is 8-9 min from here)
2. Take left on first red light (Davidson ave.)
3. Take right on "New Brunswick Rd" at the end of Davidson.
4. Take left on "Elizabeth Ave."
5. Go ~2 miles, colonial park is on the right. Once inside the park, park your vehicle in the Parking Lot C and Gaga-yoga is on right in the picnic areas (benches).

Rain venue: Riverside Elks park in piscataway: This park is right on exit 9 on 287. Take exit 9 on 287, keep right and park is on the left side.

Tuesday, June 05, 2007

कृषक आमिर मुम्बईवाला

-- कृषक आमिर मुम्बईवाला --
अब किसान की उपाधी लेकर अमिताभ क्या 'फ़ेमस' हुए, आमिर भाई भी चले कृषक बन्ने।

ए, क्या बोलता तू,
ए क्या मैं बोलूँ,
सुन,
सुना,
करता क्या खेती?
क्या करूँ, करके मैं खेती,
किसान बनेंगे, फ़ार्म-हाउस बनायेंगे, गरीबी-गरीबी की एक्टिंग (मज़ाक) करेंगे और क्या।
बात सच्ची-मुच्ची सोचने वाली है। क्या यह सच है? या फिर और अधिक संवेदन्शीलता का मस्का लगाकर "क्या यह गरीबों का मज़ाक नहीं है"?

हालाँकि इसे भी हम एक खबर की तरह या इसका मज़ाक उड़कर इसे भुला सकते हैं।
लेकिन क्या हमें यह विचारने की ताकत और समय है कि इतने धनवान होकर भी ये लोग इस तरह की मक्कारी और निकृष्ट हरकतें क्यूँ करते हैं?

या फिर। क्या हमें सिर्फ़ दूसरों की मक्कारी ही दिखाई देती है? क्या हम सब या हमारे आस्पास के लोग-लोगिनियाँ ऐसे नहीं हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि जो जितना पढा-लिखा है या धनवान है वो उतनी ही बड़ी मक्कारी करता है (शोध का विषय बन सकता है - (c) कॉपीराइटेड ) । क्या परिग्रह का खेल खेलते-खेलते हम इतने गिर चुके हैं कि मानवता या राष्ट्र-हित हमारे दिल-दिमाग़ में होली-दिवाली ही आयें?
एक तरफ़ तो किसान आत्म-हत्या कर रहे हैं (यह हकी़क़त है) और दूसरी तरफ़ हम लोग सम्पत्ति के नाम पर ज़मीन, घर, फ़ार्म-हाउस, एशो-आराम के संसाधन खरीदे जा रहे हैं जिससे हम अपनी 'लाइफ़' 'इन्जॉय' कर सकें। यदि हमारी परिग्रह की दौड़ में कोइ कानून, मानवता आडे़ आती है तो उसे कुचलने में झिझकते भी नहीं।

हाल ही मैंने स्वामी रामदेव के लन्दन प्रवास का साक्षात्कार देखा था। उनसे पूछा गया, "आपको यहाँ आकर कैसा लगा?" स्वामी जी ने कहा "यहाँ के दैनिक जीवन में विज्ञान का अधिक प्रयोग है। दूसरी मुख्य बात कि यहाँ सफ़ाई है और लोग क़ानून का आदर करते हैं, उससे डरते हैं चाहे वो गरीब, अमीर या प्रभावशाली हों। हमें भारत में भी ऐसा हे करना है। कुछ चीज़ें हम पश्चिम को सिखा सकते हैं तो कुछ उनसे सीख भी सकते हैं....."

अपवाद सभी जगह हैं। लेकिन हमें सोचना है कि क्या हम हमारे देश से सच्ची-मुच्ची का प्रेम करते हैं या सिर्फ़ हमारी देश-भक्ति नारा देने, क्रिकेट देखने या फिर गणतन्त्र/स्वतन्त्रता दिवस पर टीवी ऑन करने तक ही सीमित है।

अगर हम अमिताभ या आमिर को सुधार पाये तो अच्छा है, लेकिन अगर स्वयं को नहीं सुधार पाये तो ....
... सीटी बजने में देर नहीं। तो अब करना क्या है?

Friday, June 01, 2007

दंगे में रंगे

दंगे में रंगे

गूजर और डेरा विवाद से, ये सच्चाई समझ आई,
लोगों के पास कितना व्यर्थ समय है भाई ।

मीडिया ने खबरें छाप-छाप के रेटिंग खूब बढ़ाई,
खबर मिली-सो-मिली, भावनायें खूब भड़कायीं ।

खून बहाने की आपकी दीवानगी पर मुझे फ़क्र है,
लेकिन आपकी-मेरी सोच में 19-20 का फ़र्क है ।

ये खून किसी हॉस्पीटल में जमाया होता,
किसी के प्रियजन को अवश्य बचाय होता ।

मैं तो कहूंगा आपका जीवन आज से देश के नाम कर दो,
गरीबी और भ्रष्टाचार मिटाने की जेहाद का एलान करदो ।

गुरू गोविन्द सिंह के सपूत बनकर बोलो 'सत-स्री-अकाल' ,
देश सेवा के लिये शहीद होकर, कायम करो मिसाल ।

किसान अमिताभ

किसान अमिताभ

देखें: http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2007/06/070601_amitabh_land.shtml
आऊर देखें: http://news.bbc.co.uk/2/hi/south_asia/6711009.सतम

ना जी। धोका ना खाईये, ये वो फ़िल्मी गुस्सेल-युवा ( 'एंग्री यंग मैन' ) नहीं जो पैसों में बिकता है, फ़िल्मों में हिंसा मारधाड़ करता है, ऊल-जलूल गाने गाता है और अर्ध-नग्न नारियों के साथ आधुनिक नृत्य करता है। वो अमिताभ तो बाकी बॉलिवुड की तरह बिकाऊ है।

ये अमिताभ है, उत्तर-प्रदेश का एक भोला-भाला किसान। अब बात जे हुई बबुआ कि इस किसान ने पुणे में फ़ार्म-हाउस (अमीरों की झुपड़िया) बनाने के लिये एक खेती की ज़मीन खरीदने का आवेदन किया। अब ये निपूते कनून भी ऐसे कि पुणे की उस ज़मीन को तो सिर्फ़ कोइ किसान ही खरीद सकता है। अत: इस किसान ने यह शपथ-पत्र दिया कि ऊ। पी. (यू पी) के फ़ैज़ाबाद में उसके पास १९८३ से खेती की ज़मीन है। अब पुणे की पुलिस को पता नहीं किस अमरीकन कुत्ते काट खाया कि उन्हैंने शुरु कर दी तहकीकात। फिर क्या, फिरकनी । पता चला कि ऊ. पी. के खेत फ़र्ज़ी हैं। शायद 'मुलायम' से नाज़ुक रिश्तों की वज़ह से किसी सरकारी नौकर से ये भूल हो गयी और फ़र्ज़ी कागद बन गये। ये सब दैवीय क्रियायें हैं, हम जैसे नराधम क्या जानें।

अब ई तो संयोग ही है कि ई तो बॉलिवुड की कहानी सी बन पड़ी है। थोडी़ देर में एश्वर्या देवी का नृत्य होगा पुलिस का ध्यान बटाँने को। फिर ऊ अमिताभ अपने से आधी उम्र की छुकरिया के साथ नैन-मटक्का करेगा, पूरी पब्लिक का ध्यान बटाँने को। अगर ये सब भी काम ना आया तो जया जी के पास तो आँसूयों का महा-सागर है जिससे वो इन सारे पापों को धो देंगी।

अब भारत में जब जगह-जगह किसान आत्म-हत्या कर रहे हैं तो मुझे चिंता हो रही है। खैर, अमिताभ ई भी कह सकत हैं कि हम तो फ़िलम में ( और ई जीवन मा भी ) वही करते हैं जो 'रीयल लाइफ़ में होत है।

नोट: फ़िलम खतम होने पर सीटी बजाना ना भूलें।

Monday, April 30, 2007

काळू काळू, हाँ बापू

हाल ही में मैंने "जॉनी-जॉनी, यस पापा" का यह भारतीय संस्करण सुना-


काळू काळू, हाँ बापू
ज़र्दा खाया , ना बापू
झूट बोले, ना बापू
मुहँ तो खोल, आ ले थू-~~~~~~

Thursday, April 12, 2007

शेयर बाज़ार का जुआ

मेरे पिछले ६-७ साल के शेयर बाज़ार के कार्य-अनुभव पर आधारित।
मैंने आजतक ना कोइ शेयर प्रत्यक्ष रूप से खरीदा है और ना ही आगे खरीदने का कोइ इरादा है। हो सकता है कि मेरे कार्य-सेवा-समाप्ति ( रिटायरमेण्ट ) निवेश का प्रबन्धन करने वाली कम्पनी या मेरा बैंक अप्रत्यक्ष रूप से शेयर बाज़ार में निवेश करते हों। मेरा यह अनुभव है कि शेयर दललों और कम्पनियों के पास जो अन्दुरुनी जानकारी होती है और जिस तरह से वो अपनी हरकतों से बज़ार प्रभावित करते हैं, इन सबसे एक साधारण व्यक्ति का लड़ना बेमानी है।
--
शेयर बाज़ार की लूट है लूट सके तो लूट,
पैसे लगे हैं पेड़ों पर, भर ले सूट और बूट।

भर ले सूट, खरीद शेयर और बन काग़ज़ी मालिक,
मनमर्जी करें डायरेक्टर, जब-तब पोते तेरे मुँह पर कालिख।

मुहँ पर कालिख और हो-हल्ले में, भुलायें अमानवीय हरकतें हर क्षण,
प्रकृतिक सम्पदाओं - मजदूरों का शोषण या हो सांस्कृतिक प्रदूषण।

प्रदूषण मन में लालच का, कोइ हमें यह गणित तो समझाये,
कौड़ी का ये शेयर, हज़ारों में कैसे बिक जाये।

खरीद सस्ता बेच महंगा का ये खेल खिलाये चक्कर,
जुआ नहीं तो और क्या, बने एक मालदार जब हज़ारों बने फक्कड़।

बनें हज़ारों फक्कड़, लुटाई जीवन भर की कमाई और हुए 'पैदल',
जो हुए मालदार शेयरों मे, मीडिया बनाये उन्हैं 'आइडल',

भारत से लेकर अमरीका तक, हुये शेयरों में खूब उछाल,
मालामाल हुये दलाल और चोर, करोड़ों हुये कंगाल।

दलाल रखें अन्दर की खबर और करें खूब धन्धा 'बैक-डोर'
हर नियम की काट रखें वो, मुनाफ़े के लिये बनें 'इन्साइडर'

वार्षिक वित्तीय परिणाम और घोटालों के चलें प्रपन्च दना-दन,
भगवान जाने कितने काले हैं इन घोटाले करने वालों के मन।

सोचो, समझो और छोडो़ शेयर की ये दुनिया झूठी,
लालच छोड़ कोशिश हो कि मिले किसी भूखे को रोटी।

-- हिमांशु शर्मा

Wednesday, January 17, 2007

गुरुओं की बाढ़

-- २००७ --

व्यावसायिकताओं से भरी इस दुनिया में, भई गुरुओं की भीड़,
कोइ कराये झट प्रभू-दर्शन, कोइ दे मन-शान्ति गारण्टीड ।

मन-शान्ति गारण्टीड कह, मध्यम व उच्च वर्ग को ललचाये,
जेब हो खाली जिसकी, वो इन गुरुओं के पास फटकने ना पायें ।

कोइ कराये सत्संग अमीरों के, कोइ सिखाये फेफडे़ फुलाऊ प्राणायम,
पैसा है तो 'यू आर वेल्कम', तीसरी दुनिया को तो दूर से सलाम।

बातें करें महान भारतीय सभ्यता की ऐसी ऊँची-ऊँची,
भारत की दरिद्रता, गन्दगी देख, ईश्वर ने की गर्दन नीची।

मालदार आश्रम, मोटा 'रेज़ुमे', दुनिया-भर में अवाजाही,
पुरानी राबडी को नये ग्लास में देकर, लूटें खूब वाह-वाही ।

पश्चिम की हर बात माया-मिथ्या, सिखायें ये सबको भैया,
बातों पर ना लगे टेक्स, लेकिन गुरुजी सबसे बडा़ रुपैया।

सबसे बडा़ रुपैया जिनसे जुटाये ये सुविधायें आधुनिक जीवन की,
गुरुओं को सिखाये कौन कि ' गरीब में ही ईश्वर है ', पहले सेवा करो उनकी।

जबतक हैं गरीब असहाय है दुनिया में, सेवा हमें उनकी करनी है,
सुख शान्ति न गुरुऒं के आश्रमों, न अपने महलों मे, बात तय दिल में करनी है।
-- हिमांशु शर्मा