Wednesday, August 30, 2006

घूस स्कूल

----- घूस स्कूल -----
"नारा: ghoos school = ghoos is cool"

सुनो सुनो सुनो, मेरे प्यारे देश के नागरिकों सुनो,
पैदल - साइकिल छोडो, डबल-रोटी, जीन्स और कारों के सपने बुनो ।

इस स्कूल के खुलने पर, देश का सौभाग्य चढा नई सीढी,
घूस लेने के लेटेस्ट गुर, यहाँ सीखेगी हमारी नई पीढी।

अब बिना ट्रेनिंग किये, नहीं लेना घूस मेरे लाला,
हरे नोटों की गड्डी, ले सकोगे बिना किये मुहँ काला।

समेट सकोगे माल मेरे आका, जितनी तुम्हारी अंटी है,
बाल-भी ना होगा तेरा बाँका, ये लिखित गारण्टी है।

मरीजों की लाइन हो, या पानी-बिजली-फ़ोन का कनेक्शन,
बिना सुविधा शुल्क पत्ता ना हिले, आप राम हो या लक्षमण।

एडमीशन है चालू, ' जैक ' और डोनेशन दो लाख लेकर आना,
पहले दिन से आधुनिक शिक्षा का, नया पाठ तुम पढके जाना ।

अपने ज़मीर को मारें कैसे, आदि बातें सिखाई जायेंगी,
असहाय गरीब का खून चूसें कैसे, ये बातें आत्मा में बिठाई जायेंगी ।

घूस लेते हुए झिझकना मत, दिल को मत पिघलने देना,
ये सब विधि का विधान है, यह सत्य मन को समझने देना ।

यह सच है कि यह शरीर तो सिर्फ़ मिथ्या है,
तो इससे लेन-देन करने में, हर्ज़ ही क्या है।

इस स्कूल के टीचर हैं पढे-लिखे, और धुरन्धर हर क्षेत्र में,
ऊँचे खिलाडी हैं मोटी चमडी के, रोज़ धूल झोंकते ईश्वर के नेत्र मे।

किताबी ज्ञान होगा नियन्त्रित, पर प्रेक्टिकल पर ज़ोर होगा ज्यादा,
सभी लोग हैं आमन्त्रित, अमीर-गरीब, नर या मादा।

सभी हैं हमारे फ़्रेन्चाईज़, नेता, मन्त्री, अफ़सर, जज या बाबू,
जल्द मिलेगी खुशखबरी, जब सुविधा-शुल्क बिल होगा लोक-सभा में लागू।

आप बनो नेता, ऑफ़ीसर या बनो छोटे या मोटे बिजनेसमेन,
सबके जीवन में भैया, घूस ही तो है सबसे मेन।

दो बातों के बिना आजतक, ना चला किसी का काम,
फ़िर शर्म कैसी स्वीकारने में, चाहे घूस हो या 'काम'।

आप कुर्सी पर बैठे लेते हों या डर के अन्डर दी टेबल,
जल्द बढेगी घूस-कर्म की गरिमा, भागेगा डर और बनेगा ये नोबल।

वह दिन दूर नहीं जब हर बेटा धरती माँ का, होगा घूसखोर,
सीना तान के गर्व से बोल सकेगा, हाँ ! मैं हूँ चोर, मैं हूँ चोर।

-- हिमांशु शर्मा कुल समय ६ घण्टे (६ दिनों में १ घण्टा प्रतिदिन)

Tuesday, August 29, 2006

मिच्छामी दुखडम

नमस्ते!
मुझे जैन पर्व 'पर्यूषण' के पीछे छुपा सन्देश अति-सुन्दर लगा। तो मैंने सोचा कि इस बार मैं इसे मनाऊंगा।
मुझे लगता है कि दूसरों को क्षमा-दान देने से और दूसरों से क्षमा माँगने से हमारी बहुत सारी मानसिक समस्यायें हल हो सकती हैं। साथ ही हमें मानसिक स्वच्छता और शान्ति भी मिलती है।
~!~!~!~!~
यदि मैंने जाने-अनजाने में कभी आपको अपने विचार, शब्द या कार्यों से अपको व्यथित किया है तो पर्यूषण के पावन पर्व पर मैं हृदय से आपसे क्षमा माँगता हूँ।
साथ ही:
मैं सभी जीव-अजीवों को क्षमा करता हूँ
मैं सभी जीव-अजीवों से क्षमा माँगता हूँ
मैं सभी जीव-अजीवों से मित्रता का व्यवहार करूँगा
मैं किसी से दुश्मनी का व्यवहार नहीं करूँगा
और मैं सभी से क्षमा-प्रार्थी हूँ।
~!~!~!~!~
मुझे महसूस होता है कि मेरे मन में कई बार कई लोगों के प्रति कोइ बुरी बात (ईर्ष्या, घृणा, अहित भावना, क्रोध, द्वेष, आदि) उत्पन्न होती है। अधिकतर ऐसे विचार क्षणिक होते हैं लेकिन कभी-कभी ये बहुत दिनों तक मन में जगह बना लेते हैं। इस तरह के विचार मेरी क्रियात्मकता और सकारात्मक सोच को गलत तरह से प्रभावित करते हैं। दूसरी ओर मेरे जाने-अनजाने में किये गये अनुचित कार्य दूसरों को आहत करते है। भविष्य में मेरा प्रयास रहेगा कि में किसी को आहत न करूँ और अगर कर भी दिया तो क्षमा-याचना के लिये तत्पर रहूँ।

अत: मेरा विश्वास है कि पर्यूषण मेरी मानसिक व शारीरिक शक्ति को एकजुट करने और उसे समाज सेवा में लगाने में सहायक होगा।

Thursday, August 24, 2006

देखो, कोशिश करूंगा...

देखो, कोशिश करूंगा...

पता नहीं कब यह अमृत वाक्य जिव्हा में चढ गया। अब लगता होता है कि इस शब्द के अन्दर का भाव कहीं बहुत पीछे छूट गया है।जब भी कोइ मुझसे कुछ सही करने को कहता है, जवाब होता है "देखो, कोशिश करूंगा..." (आगे से संक्षिप्त में दे-को-क, लेकिन यह दे-कोक या दे-पेप्सी नहीं है जनाब) । यदि कोइ अच्छी आदत अपनाने को कहता है, फिर वही "दे-को-क" । जीवन के बाकी कार्यों के लिये शायद ही मैं दे-को-क की शरण में गया हूँ।
दे-को-क का अब जो भाव रह गया है, वह है टालने वाला, मतलब "ठीक है ठीक है, देखेंगे..." । आखिर क्यों होती है टालने की ज़रूरत। मै क्यों नहीं कह पाता कि "मैं फ़लाँ काम नहीँ कर पाउँगा" या फिर "मैं फ़लाँ काम अवश्य करूंगा"।
ऐसा बहुत कम बार होता है जब वास्तव में टालने की आवश्यकता हो। ज्यादातर तो पता होता है कि बताया गया काम करना है, लेकिन किसी कारणवश नहीं कर पाता हूँ। उसके बाद मुझे यथास्थिति स्वीकार करने में झिझक होती है और इस स्थिति से बाहर निकलने में सहायता माँगने में आती है ढेर-सारी शर्म (शर्मा जो हूँ)। ठीक इसी समय, दे-को-क की छत्र-छाँया में जाकर ही आराम मिलता है।
लेकिन साथ ही दे-को-क से मेरी काम टालने की और दूसरों की बात अच्छी तरह से ना सुनने की आदत बलवती होती जाती है। कोशिश तो दूर, उस काम को करने के बारे में खयाल भी नहीं आता। यह बात मैंने अमरीका में आकर देखी/महसूस की कि अधकचरे मन से कहा दे-को-क कितना नुकसानदायक हो सकता है।
मुझे यह सीखना है कि मैं विश्वासपूर्वक यह कह पाऊँ कि या तो "मैं फ़लाँ काम सच्चे मन से करूंगा" या "मैं फ़लाँ काम करने में असमर्थ हूँ"। अगर सच्चे मन से कार्य सम्पादन का प्रयत्न किया और किसी कारणवश असफल रहा, तभी मैं कह पाऊगाँ कि "पूर्ण/आंशिक असफलता का कारण ये है" और मुझे इसे पूर्ण करने में सहायता चहिये या फिर "भैया ये काम नहीं हो सकता "।

Tuesday, August 22, 2006

Wow America: Part 1 Office

WOW America: part 1 Office

This is part 1 of a series on life in the United States of America, from my eyes. This first part focuses on unwanted wastages in the US offices based on my 7 years in the US (living in New Jersey and California and visiting few other states for short trips). Since I work in IT, my experiences reflect offices where IT people work, which are companies of all sizes and fields (finance, pharmaceuticals, insurance, engineering, computer software-hardware products, management-consulting, etc.). When I came to the, the amount of wastage was shocking though the efficacy of the system was, no doubt, enchanting. If this is how a modern society works, then I don’t think we will ever have enough resources to modernize Indian society.
I agree that there are many good things I have learnt after coming to the US and I will write on them later.

Mr. Al Gore, Ex – vice-president of the US, has said in his latest movie ‘An Inconvenient Truth’ that we are running this planet like a bankrupt company. I believe he is very true.
People live with an attitude of “we do all this because we can afford” and every expense is legitimate if the company can pay for it. The worse part: wastage is increasing every year.

1. Water: Almost all companies have water bottle dispensers. Everybody takes a new plastic/paper cup each time they drink. Hence 4-5 cups everyday per person.

2. Coffee: You are not American unless you drink coffee. Everybody (95% of the employees in all the places I have worked/seen) drink 2-3 cups (some even more) of coffee everyday. The in-office coffee cups are made of paper and some outside stores make it of thermocol/plastic. People also use an extra pad (like a ring around the cup) made of card-board so that fingers don’t feel hot, but people in office just take an extra cup (hence double cup to save fingers from hot coffee-tea). Some people tell me that they used to drink coffee in personal glass mugs till few years ago. But coffee leaves strong stains on glasses and cleaning is a real exercise (read time-waste). Coffee normally costs $1-4. Most offices have coffee machines and keep 3-4 variety of coffee (normal, caffeine free, vanilla, etc.).

3. Cold-drinks (soda) fountains: many medium to big companies have cold-drink fountains inside the office so that employees don’t go outside and waste company time to buy one. Normally people drink 3-4 cups of soda in a day. Everybody takes a new plastic cup with each drink.

4. Paper-towel: It is a piece of paper used to dry hands used in restrooms (bathrooms), kitchens, etc. If you go to restaurants, they keep electric dryers but it takes some time (1-2 minutes) to dry hands with these. Hence, offices keep paper towels and I see people normally use two towels, for faster drying of hands/face. Consumption: 20 paper towels per person per day.

5. Tissues: many people keep tissue papers on desks to wipe hands, face etc. Consumption: 10-20 tissues a day per person.

6. News papers: You can find 4-5 types of free newspapers (10-20 pages) near commuting train stations in New York area. Besides this, people buy newspapers which they trash out while leaving the train. Some people even leave them in the train, though train crews regularly announce requesting passengers to trash news-papers outside the train.

7. Lunch: Most of the people eat-out in lunch in US. Very few (mostly Indian, Chinese, Europeans, Russians) bring lunch from home. Outside lunch is packed in paper bags, card-boards, paper wraps, plastic bags, etc. Most lunch costs around $5-10.

a. Cans/bottles: Everybody takes a drink with lunch; hence cold-drink (coke, juice, water, etc.) bottles/cans are used in millions.
b. Chips: everybody takes chips (wafers, tortilla etc.) while eating and these come in plastic pouches.
c. Each lunch you buy out, comes with other disposables like sauce pouch (tomato, mustard, mayo, soy sauce, etc.), paper pouches of salt-pepper, plastic spoon-fork-knife, 2-4 tissues to wipe mouth when eating, etc.

8. Paper: Taking printouts from your computer, no problem. Most offices have multiple printers (1-2 color too) and no limit on how many paper one uses.


9. Utility:
a. Computer: Everybody has a computer. Well it is more common in IT jobs as compared to non-IT jobs. Most of the computers are replaced every 4-5 years. In IT, everybody has two monitors (some have 3 too) and in last 2-3 years I have seen flat-screen monitors everywhere. Most computers run 24 hours a day though they go into power-safe mode when idle.
b. Light: I think every 100 sq-feet has 80-100 watt of light and only tube-lights are used (which is good). Even at night, 20-40% of the lights are on. Some offices leave all lights on, whole night. Parking lot lights are on whole night for security purposes.
c. Telephone: Everybody has a phone. Medium or midsize companies give independent external number.
d. Garbage can: everybody has it with a plastic pouch which janitor replaces every evening.
e. Carpet: most companies have carpeted floor. Cleaner vacuum cleans it every evening.
e. Gifts: Most companies keep coming with publicity gifts (likes some toy, ball, cap, etc.) with the companies logo.


I do:


1. Try to remember to carry a hand-kerchief so that I don’t have to use paper-towels. I had this habit in India but got over it in the US. I need to develop it again.
2. I drink water in my own glass mug and I wash it regularly.
3. I don’t drink soda, coffee, tea etc. I find water as the best liquid to energize and refresh me.
4. Walk over to colleague rather than calling them on phone. It’s a recommended exercise too.
5. Don’t buy New-papers. Read News on the internet in the lunch hour.
6. Always carry lunch from home. And why shouldn’t I when my wife gets up everyday at 6am to cook fresh meal for me and my family.


What do you think?.

Friday, August 18, 2006

दाल पतली....

जी हाँ, दाल पतली करने से ही काम चलेगा। आगे पढेँ।

आज एक बार फिर पढा बीबीसी हिन्दी पर http://www.bbc.co.uk/hindi/news/story/2006/08/060818_america_dal.shtml । बीबीसी हिन्दी को इस बात का दुख है कि दुनिया के सबसे सुविधा सम्पन्न और धनी देश अमरीका में रहने वाले दक्षिण एशियाईयों को दाल कितनी महंगी लग रही है। और अमरीका में दाल महँगा होने का कारण है भारत सरकार द्वारा दालों के निर्यात पर प्रतिबन्ध। और ये प्रतिबन्ध इसलिये क्योंकि गत वर्ष भारत में दाल की फ़सल अच्छी नहीं हुई। क्यों नहीं हुई इससे हमें क्या।

मैं अमरीका में ही रहता हूं और मुझे ये खबर पढकर हँसी आयी क्योंकि अमरीका में बाकी चीज़ों के दाम के मुकाबले दालें इतनी महंगी नहीं है।
बीबीसी के अनुसार "...पहले जहाँ इन दालों के पाँच पाउंड के एक पैकेट का दाम तीन डॉलर था वहीं अब यह बढ़कर 10 डॉलर के क़रीब हो गया है...."

मेरा परिवार, जिसमें मैं, मेरी बेगम और एक ५ साल की मेरी लडकी है, एक महीने में ५ पाउण्ड (२ किलो) से ज़्यादा दाल नहीं खाता। तो भाई कुलमिला कर, महीने में मेरे ७ डालर अधिक खर्च हो रहे हैं। लेकिन यहां पर अगर आप चाय-काफ़ी भी बाहर पियें तो २-३ आलर की आती है, और ६-७ डालर मे आप बर्गर खाके पेट भर सकते हैं। खैर, चलो मान भी लो कि दाल महंगी है। अब आप ये सोचिये ये दाल भारत में रहने वाले निम्न व मध्यम वर्गीय परिवारों को कितनी महंगी लग रही होगी।
कुछ खट्टी-मीठी बातें:
१. मुझे लगता है कि दालों की ज़रूरत भारत के परिवारों को ज़्यादा है। भारत के बाहर के लोगों को कुछ समझदारी से काम लेना चाहिये दालें कम खाकर।
२. वैसे भी डाक्टर कहते कहते थक गये कि सब्ज़ी ज़्यादा खानी चहिये। इससे अच्छा क्य मौका है। दालें छोडो, सब्ज़ी से नात जोडो।
३. और फिर दाल पतली क्यों नहीं करें। वाकई, पतली दाल खाओ, सूप बनाकर, 'इंग्लिश श्टाइल'।
४. अजी दाल मे कौनसे सुर्खाब के पंख लगे हैं। राजमा, दूसरे बीन्स (लीमा, ब्लैक आई, फ़्रेन्च, इत्यादि) भी तो खाये जा सकते हैं जो कि पूरी दुनिया की स्थानीय फ़सलें हैं।
५. दुकानदार हमेशा की तरह दाम बढने से पहले ही दाम बढा देते हैं, लेकिन जब दाम घटाने का समय आता है तो बहुत धीरे धीरे रोते-रोते घटाते हैं। आपने देखा होगा, बजट की घोषणा हुई नहीं कि दाम बढ जाते है। कभी आपने दाम घटते हुए देखा है या सुना है। फिर दुकानदारों से ये पूछो कि जो माल आपने सस्ती दर पर खरीदा था उसे दाम बढाकर क्यों बेचते हो।

कहीं ना कहीं दाल में कुछ काला अवश्य है।
खैर, बेहतर यही है कि दाल का इस्तमाल एहतियात से करो।

Tuesday, August 01, 2006

गीता प्रयोगशाला

गीता प्रयोगशाला

गीता को मनोविज्ञान की सर्वोत्तम पुस्तक बताया गया है। पूरी दुनिया में, गीता के बारे में अनगिनत ज्ञानीजन व्याख्यान देते रहते हैं और बहुत लोग उसने लाभान्वित व प्रभावित भी होते हैं।
एक बार एक व्याख्यान में मैनें सुना था कि गीता को हम दो प्रकार से पढ सकते हैं। एक तो हम गीता पर शोध करें अर्थात संस्कृत, गीता की उत्पति, लेखन समय, विकास आदि का अध्ययन। दूसरा हम गीता में बताई गई बातों को पढें, समझें और उनको अपने जीवन में ढालने का प्रयास करें।
प्रत्यक्ष है कि जन साधारण गीता को दूसरे वाले प्रकार से ही पढना चहता है और उसे ऐसा ही करना भी चाहिये। अब प्रश्न ये उठता है कि गीता को पढने, समझने और जीवन मे ढाला कैसे जाये।
किसी भी विषय को सीखने के कई तरीके हो सकते हैं। एक तो ये कि हम उस विषय से सम्बंधित पुस्तकें लायें और स्वयं उनका अध्ययन करें। या फिर हम किसी शिक्षक की कक्षा में जायें और शिक्षक और अन्य सहपाठियों की सहायता से सीखें। लेकिन सिर्फ़ शिक्षक या ज्ञानीजन की बात सुनने और उसे पसन्द करने से काम नहीं चलेगा। एक और तरीका जिससे हम किसी भी ज्ञान को अच्छी तरह से सीख सकते हैं, और वो है हम प्रयोग करें और अपने प्रयोगों को अन्य साधकों से बांटें जिससे सभी लाभान्वित हों। आधुनिक विज्ञान को सीखने में प्रयोगों को बहुत महत्वपूर्ण समझा जाता है और विद्यालयों मे जीव-विज्ञान, भौतिकी, रसायन-विज्ञान आदि की प्रयोग्शालाओं में विद्यार्थियों को किताबी ज्ञान को समझने में बहुत सहायता मिलती है। गीता से सम्बंधित हज़ारों पुस्तकें दुकानों या पुस्तकालयों में उपलब्ध और गीता पर व्याख्यान देने वाले ज्ञानीजन भी बहुत हैं। लेकिन गीता की प्रयोगशालायें बहुत कम हैं।

-- कैसी हो प्रयोगशाला --
हमें ऐसी प्रयोगशालाओं की स्थापना करनी होगी जहां जन-साधारण मिलजुल कर गीता पढें-सीखें और उसे अपने जीवन में ढालें। सबसे आवश्यक ये है कि सभी साधक अपने अनुभवों को बाटें और उन पर खुली चर्चा करें। ऐसी प्रयोगशाला कुछ पडोसी मिलकर कर भी सकते हैं। यह आवश्यक नहीं कि हम किसी नई संस्था की स्थापना करें। अगर कोई समूह पहले से ही गीता पठन-पाठन या कोइ अन्य सत्संग का कार्य करता है तो वह अपने कार्यक्रमों में मामूली फेर्बदल कर गीता प्रयोगों को प्रारम्भ कर सकता है। समय समय पर किसी ज्ञानीजन को व्याख्यान पर आमन्त्रित कर सकते हैं। इस बात पर बल दिया जाये कि चाहे एक श्लोक एक महीने तक पढा जाये, लेकिन उस चर्चा कर उसे जीवन मे ढाला जाये। इस तरह की प्रयोगशालायें न केवल बच्चे व बडों को गीता में छुपे अथाह ज्ञान से परिचित करवायेंगी और उनके जीवन में श्रेष्ठ संस्कार लाने में सहायक होंगी।