Monday, September 11, 2006

लगे रहो मुन्ना भाई

लगे रहो मुन्ना भाई --

सच में, हास्य और आचरण शिक्षा का इससे बेहतर पाठ मैनें तो मुम्बई फ़िल्म नगरी से पहले नही पढा। मुन्ना भाई की ज़ुबान में "कुछ येडों के मुहँ से गाँधी-गिरी और मस्त मज़ाक का लेक्चर अपुन ये-ईच फ़िलम में पेली बार देखेला है रे बाप.. .. बोले तो बापू"।

अतिश्योक्ति न होगी यदि मैं यह कहूँ कि वर्तमान भौतिकवादी फ़िल्म-युग में, किसी युवा निर्देशक ने पहली बार गान्धीवादी विचारों को न केवल उठाया है वरन उन्हैं जीवन में लागू करता हुआ दिखाया है। और भैया, ये कार्य कोइ युवा निर्देशक ही कर सकता था क्योंकि पुराने जमाने के बुढिया चुके फ़िल्मकारों से ऐसी आशा करना भैंस के आगे बीन बजाने जैसा है। ट्राई करके देख लिजिये।

"मुन्ना भाई" (इससे पहले की फ़िल्म) में "लगे रहो" को इतने बढिया तरीके से हर स्तर पर जोड पाना एक मँझे हुए कहानीकार और निर्देशक की परिपक्वता को दर्शाता है या फिर ये कहें कि "उनके अनुभव में पके या उडे बालों को दर्शाता है"। अगर आपने इससे पहले की फिल्म "मुन्ना भाई" नहीं देखी हो तो देर ना करें। विशेष बात ये है कि आप कोई सी भी फ़िल्म पहले देखें इससे कोइ फ़र्क नहीं पडेगा।
मुख्य बात जो मुझे अच्छी लगी वो यह कि गान्धी जी के अमृत वाक्यों जैसे "डर ही मनुष्य का सबसे बडा दुशमन है", "सत्याग्रह से कोइ भी कार्य सम्भव है", "माफ़ी माँगना चाँटा लगाने से कहीं ज़्यादा कठिन है", आदि और युवाओं द्वारा अपने वृद्ध माता-पिताओं को त्याग देना, ज्योतिष (कुण्डली और अंक) में अन्ध-विश्वास, भ्रष्टाचार, पढे-लिखे लोगों की अन्याय के समय के लाचारी आदि मूल सामाजिक मुद्दों को दिखाना फ़िल्मकारों के लिये सदा चुनौती रहा है। इन बातों को बिना अति-उपदेशात्मक हुये दिखाना कहानीकार और निर्देशक की कार्यकुशलता ही तो है।

वैसे श्टोरी कुछ ऐसी है भाई--

एक था हीरो मुन्ना भाई,
साइड-हीरो सर्किट था छोटा भाई।
मुन्ना भाई का पडा पाला गांधी जी से,
कारण थी एक हीरोइन, जो बोलती थी रेडियो से।
हीरोइन के दादा चलाते थे वृद्धाश्रम,
जहाँ रहते थे वृद्ध मस्त, चाहे कितने हो गम।
वृद्धाश्रम की खुशियाँ काटना चाहता था एक विलेन नाई,
आगे के लिये, जाओ पिक्चर-हॉल और देखो "लगे रहो मुन्ना भाई"।

अब कुछ बातें कलाकारों के बारे में। कलाकरों का चयन बहुत सावधानी से किया गया है। सभी का अभिनय सटीक और ताज़ा है। जहाँ सञ्जय दत्त जी का लहज़ा और हाव-भाव मुन्ना भाई के रूप में जीवन्त हुआ हैं वहीं अर्शद वारसी जी की वाक्पटुता और छोटे-भाई का अन्दाज़ दर्शकों को हँसाते-हँसाते उनका दिल कब लूट लेता है ये पता फ़िल्म के अन्त होने के बाद ही चलता है। बाकी हास्य की कमी सरदार बने बोमन ईरानी जी पूरी कर दी। हास्य कला को पर्दे पर उतारने में बोमन जी ने अपनी महारत को एक बार फिर सिद्ध किया है। विद्या बालन जी की खूबसूरती को दिखाने में केमरे का भरपूर इस्तेमाल हुआ है। सभी कलाकरों ने भावों को अपने चेहरे पर बहुत सुन्दर तरह से दर्शाया है। हालांकि संगीत के लिये फ़िल्म में कोइ स्थान नहीं था लकिन सोनू निगम जी के मधुर स्वरों में "वन्दे मातरम..." गीत बहुत सुन्दर बन पडा है।

कुछ बातें निर्देशक फ़िल्म से हटा देता तो फ़िल्म और 'साफ़' हो जाती। जैसे हीरो, साईड-हीरो का अत्यधिक मदिरा पान, कुछ असंसदीय भाषायुक्त डॉयलाग, कुछ लार्जर-दैन-लाइफ़ सीन जैसे जन्मदिन पार्टी आदि।

अन्त में: आजकल की सडक-छाप पिक्चरों के मुकाबले पिक्चर काफ़ी "क्लीन" है, बोले तो फ़ेमिली के साथ देख सकते हैं, सिर्फ़ एक-दो जगह कान बन्द करने की नौबत आयेगी। मनोरंजन तो है ही साथ में यह सीखने को भी है कि बिना एंग्री-मैन बने भी समस्यायें सुलझायी जा सकती हैं। बात सिर्फ़ प्रयास की है।

2 comments:

deepak said...

हिमांशु भाई,
सही कहा आपने, फिल्म देखने के बाद मैने भी यही महसूस किया था कि सत्तर से अधिक की उम्र के व्यक्ति के अन्दर जिजीविषा जगाने के लिये उसका जन्मदिन मनाने की ज़रूरत नहीं पडती । पर क्या करें उपभोक्तावाद का ज़माना है ।
बहरहाल अचा प्रयास है, फ़िल्म का भी और आपका भी !!

Reetesh Gupta said...

हिमांशु भाई,

एक अच्छी फ़िल्म का बहुत विवरण दिया है आपने ।

धन्यवाद एवं बधाई !!

रीतेश गुप्ता