If you are in New Jersey (Edison area) please join.
Welcome to Gaga-Yoga:
When: Every Saturday morning 10 am.
Where and What is it: an hour of gathering in Colonial Park (Somerset http://www.somersetcountyparks.org/activities/parks/colonial_pk.htm ) to celebrate Laughter Yoga and Pranayam. Its is free.
Laughter Yoga: "Laughter is the best medicine". Since ninties when it was first started by Dr Madan Kataria of Mumbai, the laughter Yoga has evolved as a beautiful tool to de-stress your mind and body. 30 minutes of this will certainly revive you.
Pranayam: Does it need intro? Ayurveda believes that mind and stomach are the roots of all diseases. 30 minutes of pranayam including Bhasrika, Anulom-volom, Kapal-bhati, Ujjai (good for thioriod functioning and females), bhramari, etc. energizes the roots of our body. Some yoga practitioners will share their experience.
Plus: some play-in-the-woods adventure, boating and exercises for kids make it an ideal excuse to go out in summer.
Things to take: a napkin/towel. a floor mat (incase you don't wanna sit on grass).
Call:
732-632-7581 (Deepak)
201-563-8015 (Himanshu)
201-264-0329 (Reetesh)
or email " kyarilal AT yahoo DOT com " for further info.
Directions:
1. On 287 N take exit 10 and keep right. (park is 8-9 min from here)
2. Take left on first red light (Davidson ave.)
3. Take right on "New Brunswick Rd" at the end of Davidson.
4. Take left on "Elizabeth Ave."
5. Go ~2 miles, colonial park is on the right. Once inside the park, park your vehicle in the Parking Lot C and Gaga-yoga is on right in the picnic areas (benches).
Rain venue: Riverside Elks park in piscataway: This park is right on exit 9 on 287. Take exit 9 on 287, keep right and park is on the left side.
Wednesday, June 06, 2007
Tuesday, June 05, 2007
कृषक आमिर मुम्बईवाला
-- कृषक आमिर मुम्बईवाला --
अब किसान की उपाधी लेकर अमिताभ क्या 'फ़ेमस' हुए, आमिर भाई भी चले कृषक बन्ने।
ए, क्या बोलता तू,
ए क्या मैं बोलूँ,
सुन,
सुना,
करता क्या खेती?
क्या करूँ, करके मैं खेती,
किसान बनेंगे, फ़ार्म-हाउस बनायेंगे, गरीबी-गरीबी की एक्टिंग (मज़ाक) करेंगे और क्या।
बात सच्ची-मुच्ची सोचने वाली है। क्या यह सच है? या फिर और अधिक संवेदन्शीलता का मस्का लगाकर "क्या यह गरीबों का मज़ाक नहीं है"?
हालाँकि इसे भी हम एक खबर की तरह या इसका मज़ाक उड़कर इसे भुला सकते हैं।
लेकिन क्या हमें यह विचारने की ताकत और समय है कि इतने धनवान होकर भी ये लोग इस तरह की मक्कारी और निकृष्ट हरकतें क्यूँ करते हैं?
या फिर। क्या हमें सिर्फ़ दूसरों की मक्कारी ही दिखाई देती है? क्या हम सब या हमारे आस्पास के लोग-लोगिनियाँ ऐसे नहीं हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि जो जितना पढा-लिखा है या धनवान है वो उतनी ही बड़ी मक्कारी करता है (शोध का विषय बन सकता है - (c) कॉपीराइटेड ) । क्या परिग्रह का खेल खेलते-खेलते हम इतने गिर चुके हैं कि मानवता या राष्ट्र-हित हमारे दिल-दिमाग़ में होली-दिवाली ही आयें?
एक तरफ़ तो किसान आत्म-हत्या कर रहे हैं (यह हकी़क़त है) और दूसरी तरफ़ हम लोग सम्पत्ति के नाम पर ज़मीन, घर, फ़ार्म-हाउस, एशो-आराम के संसाधन खरीदे जा रहे हैं जिससे हम अपनी 'लाइफ़' 'इन्जॉय' कर सकें। यदि हमारी परिग्रह की दौड़ में कोइ कानून, मानवता आडे़ आती है तो उसे कुचलने में झिझकते भी नहीं।
हाल ही मैंने स्वामी रामदेव के लन्दन प्रवास का साक्षात्कार देखा था। उनसे पूछा गया, "आपको यहाँ आकर कैसा लगा?" स्वामी जी ने कहा "यहाँ के दैनिक जीवन में विज्ञान का अधिक प्रयोग है। दूसरी मुख्य बात कि यहाँ सफ़ाई है और लोग क़ानून का आदर करते हैं, उससे डरते हैं चाहे वो गरीब, अमीर या प्रभावशाली हों। हमें भारत में भी ऐसा हे करना है। कुछ चीज़ें हम पश्चिम को सिखा सकते हैं तो कुछ उनसे सीख भी सकते हैं....."
अपवाद सभी जगह हैं। लेकिन हमें सोचना है कि क्या हम हमारे देश से सच्ची-मुच्ची का प्रेम करते हैं या सिर्फ़ हमारी देश-भक्ति नारा देने, क्रिकेट देखने या फिर गणतन्त्र/स्वतन्त्रता दिवस पर टीवी ऑन करने तक ही सीमित है।
अगर हम अमिताभ या आमिर को सुधार पाये तो अच्छा है, लेकिन अगर स्वयं को नहीं सुधार पाये तो ....
... सीटी बजने में देर नहीं। तो अब करना क्या है?
अब किसान की उपाधी लेकर अमिताभ क्या 'फ़ेमस' हुए, आमिर भाई भी चले कृषक बन्ने।
ए, क्या बोलता तू,
ए क्या मैं बोलूँ,
सुन,
सुना,
करता क्या खेती?
क्या करूँ, करके मैं खेती,
किसान बनेंगे, फ़ार्म-हाउस बनायेंगे, गरीबी-गरीबी की एक्टिंग (मज़ाक) करेंगे और क्या।
बात सच्ची-मुच्ची सोचने वाली है। क्या यह सच है? या फिर और अधिक संवेदन्शीलता का मस्का लगाकर "क्या यह गरीबों का मज़ाक नहीं है"?
हालाँकि इसे भी हम एक खबर की तरह या इसका मज़ाक उड़कर इसे भुला सकते हैं।
लेकिन क्या हमें यह विचारने की ताकत और समय है कि इतने धनवान होकर भी ये लोग इस तरह की मक्कारी और निकृष्ट हरकतें क्यूँ करते हैं?
या फिर। क्या हमें सिर्फ़ दूसरों की मक्कारी ही दिखाई देती है? क्या हम सब या हमारे आस्पास के लोग-लोगिनियाँ ऐसे नहीं हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि जो जितना पढा-लिखा है या धनवान है वो उतनी ही बड़ी मक्कारी करता है (शोध का विषय बन सकता है - (c) कॉपीराइटेड ) । क्या परिग्रह का खेल खेलते-खेलते हम इतने गिर चुके हैं कि मानवता या राष्ट्र-हित हमारे दिल-दिमाग़ में होली-दिवाली ही आयें?
एक तरफ़ तो किसान आत्म-हत्या कर रहे हैं (यह हकी़क़त है) और दूसरी तरफ़ हम लोग सम्पत्ति के नाम पर ज़मीन, घर, फ़ार्म-हाउस, एशो-आराम के संसाधन खरीदे जा रहे हैं जिससे हम अपनी 'लाइफ़' 'इन्जॉय' कर सकें। यदि हमारी परिग्रह की दौड़ में कोइ कानून, मानवता आडे़ आती है तो उसे कुचलने में झिझकते भी नहीं।
हाल ही मैंने स्वामी रामदेव के लन्दन प्रवास का साक्षात्कार देखा था। उनसे पूछा गया, "आपको यहाँ आकर कैसा लगा?" स्वामी जी ने कहा "यहाँ के दैनिक जीवन में विज्ञान का अधिक प्रयोग है। दूसरी मुख्य बात कि यहाँ सफ़ाई है और लोग क़ानून का आदर करते हैं, उससे डरते हैं चाहे वो गरीब, अमीर या प्रभावशाली हों। हमें भारत में भी ऐसा हे करना है। कुछ चीज़ें हम पश्चिम को सिखा सकते हैं तो कुछ उनसे सीख भी सकते हैं....."
अपवाद सभी जगह हैं। लेकिन हमें सोचना है कि क्या हम हमारे देश से सच्ची-मुच्ची का प्रेम करते हैं या सिर्फ़ हमारी देश-भक्ति नारा देने, क्रिकेट देखने या फिर गणतन्त्र/स्वतन्त्रता दिवस पर टीवी ऑन करने तक ही सीमित है।
अगर हम अमिताभ या आमिर को सुधार पाये तो अच्छा है, लेकिन अगर स्वयं को नहीं सुधार पाये तो ....
... सीटी बजने में देर नहीं। तो अब करना क्या है?
Friday, June 01, 2007
दंगे में रंगे
दंगे में रंगे
गूजर और डेरा विवाद से, ये सच्चाई समझ आई,
लोगों के पास कितना व्यर्थ समय है भाई ।
मीडिया ने खबरें छाप-छाप के रेटिंग खूब बढ़ाई,
खबर मिली-सो-मिली, भावनायें खूब भड़कायीं ।
खून बहाने की आपकी दीवानगी पर मुझे फ़क्र है,
लेकिन आपकी-मेरी सोच में 19-20 का फ़र्क है ।
ये खून किसी हॉस्पीटल में जमाया होता,
किसी के प्रियजन को अवश्य बचाय होता ।
मैं तो कहूंगा आपका जीवन आज से देश के नाम कर दो,
गरीबी और भ्रष्टाचार मिटाने की जेहाद का एलान करदो ।
गुरू गोविन्द सिंह के सपूत बनकर बोलो 'सत-स्री-अकाल' ,
देश सेवा के लिये शहीद होकर, कायम करो मिसाल ।
गूजर और डेरा विवाद से, ये सच्चाई समझ आई,
लोगों के पास कितना व्यर्थ समय है भाई ।
मीडिया ने खबरें छाप-छाप के रेटिंग खूब बढ़ाई,
खबर मिली-सो-मिली, भावनायें खूब भड़कायीं ।
खून बहाने की आपकी दीवानगी पर मुझे फ़क्र है,
लेकिन आपकी-मेरी सोच में 19-20 का फ़र्क है ।
ये खून किसी हॉस्पीटल में जमाया होता,
किसी के प्रियजन को अवश्य बचाय होता ।
मैं तो कहूंगा आपका जीवन आज से देश के नाम कर दो,
गरीबी और भ्रष्टाचार मिटाने की जेहाद का एलान करदो ।
गुरू गोविन्द सिंह के सपूत बनकर बोलो 'सत-स्री-अकाल' ,
देश सेवा के लिये शहीद होकर, कायम करो मिसाल ।
किसान अमिताभ
किसान अमिताभ
देखें: http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2007/06/070601_amitabh_land.shtml
आऊर देखें: http://news.bbc.co.uk/2/hi/south_asia/6711009.सतम
ना जी। धोका ना खाईये, ये वो फ़िल्मी गुस्सेल-युवा ( 'एंग्री यंग मैन' ) नहीं जो पैसों में बिकता है, फ़िल्मों में हिंसा मारधाड़ करता है, ऊल-जलूल गाने गाता है और अर्ध-नग्न नारियों के साथ आधुनिक नृत्य करता है। वो अमिताभ तो बाकी बॉलिवुड की तरह बिकाऊ है।
ये अमिताभ है, उत्तर-प्रदेश का एक भोला-भाला किसान। अब बात जे हुई बबुआ कि इस किसान ने पुणे में फ़ार्म-हाउस (अमीरों की झुपड़िया) बनाने के लिये एक खेती की ज़मीन खरीदने का आवेदन किया। अब ये निपूते कनून भी ऐसे कि पुणे की उस ज़मीन को तो सिर्फ़ कोइ किसान ही खरीद सकता है। अत: इस किसान ने यह शपथ-पत्र दिया कि ऊ। पी. (यू पी) के फ़ैज़ाबाद में उसके पास १९८३ से खेती की ज़मीन है। अब पुणे की पुलिस को पता नहीं किस अमरीकन कुत्ते काट खाया कि उन्हैंने शुरु कर दी तहकीकात। फिर क्या, फिरकनी । पता चला कि ऊ. पी. के खेत फ़र्ज़ी हैं। शायद 'मुलायम' से नाज़ुक रिश्तों की वज़ह से किसी सरकारी नौकर से ये भूल हो गयी और फ़र्ज़ी कागद बन गये। ये सब दैवीय क्रियायें हैं, हम जैसे नराधम क्या जानें।
अब ई तो संयोग ही है कि ई तो बॉलिवुड की कहानी सी बन पड़ी है। थोडी़ देर में एश्वर्या देवी का नृत्य होगा पुलिस का ध्यान बटाँने को। फिर ऊ अमिताभ अपने से आधी उम्र की छुकरिया के साथ नैन-मटक्का करेगा, पूरी पब्लिक का ध्यान बटाँने को। अगर ये सब भी काम ना आया तो जया जी के पास तो आँसूयों का महा-सागर है जिससे वो इन सारे पापों को धो देंगी।
अब भारत में जब जगह-जगह किसान आत्म-हत्या कर रहे हैं तो मुझे चिंता हो रही है। खैर, अमिताभ ई भी कह सकत हैं कि हम तो फ़िलम में ( और ई जीवन मा भी ) वही करते हैं जो 'रीयल लाइफ़ में होत है।
नोट: फ़िलम खतम होने पर सीटी बजाना ना भूलें।
देखें: http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2007/06/070601_amitabh_land.shtml
आऊर देखें: http://news.bbc.co.uk/2/hi/south_asia/6711009.सतम
ना जी। धोका ना खाईये, ये वो फ़िल्मी गुस्सेल-युवा ( 'एंग्री यंग मैन' ) नहीं जो पैसों में बिकता है, फ़िल्मों में हिंसा मारधाड़ करता है, ऊल-जलूल गाने गाता है और अर्ध-नग्न नारियों के साथ आधुनिक नृत्य करता है। वो अमिताभ तो बाकी बॉलिवुड की तरह बिकाऊ है।
ये अमिताभ है, उत्तर-प्रदेश का एक भोला-भाला किसान। अब बात जे हुई बबुआ कि इस किसान ने पुणे में फ़ार्म-हाउस (अमीरों की झुपड़िया) बनाने के लिये एक खेती की ज़मीन खरीदने का आवेदन किया। अब ये निपूते कनून भी ऐसे कि पुणे की उस ज़मीन को तो सिर्फ़ कोइ किसान ही खरीद सकता है। अत: इस किसान ने यह शपथ-पत्र दिया कि ऊ। पी. (यू पी) के फ़ैज़ाबाद में उसके पास १९८३ से खेती की ज़मीन है। अब पुणे की पुलिस को पता नहीं किस अमरीकन कुत्ते काट खाया कि उन्हैंने शुरु कर दी तहकीकात। फिर क्या, फिरकनी । पता चला कि ऊ. पी. के खेत फ़र्ज़ी हैं। शायद 'मुलायम' से नाज़ुक रिश्तों की वज़ह से किसी सरकारी नौकर से ये भूल हो गयी और फ़र्ज़ी कागद बन गये। ये सब दैवीय क्रियायें हैं, हम जैसे नराधम क्या जानें।
अब ई तो संयोग ही है कि ई तो बॉलिवुड की कहानी सी बन पड़ी है। थोडी़ देर में एश्वर्या देवी का नृत्य होगा पुलिस का ध्यान बटाँने को। फिर ऊ अमिताभ अपने से आधी उम्र की छुकरिया के साथ नैन-मटक्का करेगा, पूरी पब्लिक का ध्यान बटाँने को। अगर ये सब भी काम ना आया तो जया जी के पास तो आँसूयों का महा-सागर है जिससे वो इन सारे पापों को धो देंगी।
अब भारत में जब जगह-जगह किसान आत्म-हत्या कर रहे हैं तो मुझे चिंता हो रही है। खैर, अमिताभ ई भी कह सकत हैं कि हम तो फ़िलम में ( और ई जीवन मा भी ) वही करते हैं जो 'रीयल लाइफ़ में होत है।
नोट: फ़िलम खतम होने पर सीटी बजाना ना भूलें।
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